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________________ 252 ज्ञानानन्द श्रावकाचार अब श्रीगुरु के प्रसाद से मेरा भ्रम नष्ट हो गया है, मैं तो जो प्रत्यक्ष ज्ञाता-दृष्टा, अमूर्तिक, सिद्ध समान है उसे (स्वयं के आत्मा को) देखता हूँ, जानता हूँ , अनुभव करता हूँ / इस अनुभव में कोई निराकुल, शान्त, अमूर्तिक, आत्मिक, अनुपम रस उत्पन्न होता है तथा आनन्द झरता है / यह आनन्द का प्रवाह मेरे असंख्यात आत्मिक प्रदेशों में धारा प्रवाह रूप बह चला है / उसकी अद्भुत महिमा, जो वचन अगोचर है, को मैं ही जानता हूं अथवा सर्वज्ञ देव जानते है / ___ मैने अनुभव किया है कि मैं कभी गहरे तहखाने में बैठा विचार करता हूं तो मुझे वज्रमयी दीवारें के पार के घट-पट आदि पदार्थ भी दिखते हैं। विचार होने (करने) पर देखो ! यह मेरा मकान मुझे प्रत्यक्ष अभी दिख रहा है, यह नगर मुझे दिखता है, यह भरतक्षेत्र मुझे दिखाई दे रहा है, सात नरकों में स्थित नारकी मुझे दिखाई देते है / सोलह स्वर्ग, नव ग्रैवेयक, अनुदिश, सर्वार्थसिद्धि तथा सिद्धक्षेत्र में स्थित अनन्तानन्त सिद्ध भगवान अथवा समस्त लोक के जो बराबर है ऐसा अमूर्तिक धर्मद्रव्य, उतना ही बडा अमूर्तिक अधर्मद्रव्य तथा उतने ही प्रदेश में एक-एक प्रदेश पर एकएक प्रदेश के आकार जितना बडा एक-एक अमूर्तिक कालाणु द्रव्य स्थित दिखता है। __ अनन्तानन्त निगोदिया जीवों से तीनों लोक भरे पडे हैं तथा बहुतसी जातियों के त्रस जीव त्रस नाडी में स्थित हैं / नरकों में नारकी जीव महा दुःख पाते हैं। स्वर्गों में स्वर्गवासी देव क्रीडा करते हैं तथा इन्द्रिय जनित सुख भोगते हैं / एक समय में अनन्त जीव मरते तथा उत्पन्न होते दिखते हैं / एक दो परमाणुओं के स्कंधों से लेकर अनन्त परमाणु का स्कंध अथवा तीन लोक के बराबर के महास्कंध पर्यन्त नाना प्रकार की पुद्गलों की पर्यायें मुझे दिखाई देती हैं / वे प्रति समय अनेक स्वभावों को लिये परिणमते दिखते हैं।
SR No.032848
Book TitleGyananand Shravakachar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRaimalla Bramhachari
PublisherAkhil Bharatvarshiya Digambar Jain Vidwat Parishad Trust
Publication Year2010
Total Pages330
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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