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________________ 250 ज्ञानानन्द श्रावकाचार झरता है उसी प्रकार अन्यों को आनन्द आल्हाद उत्पन्न करते हैं, आताप को दूर करते हैं, प्रफुल्लित करते हैं / सिद्ध भगवान स्वयं तो ज्ञानामृत का पान करते हैं, आचमन करते हैं तथा अन्यों को भी आनन्दकारी हैं / उनका नाम लेने से अथवा ध्यान करने से भव रूपी आताप नष्ट हो जाता है। परिणाम शान्त होते हैं तथा स्व-पर की शुद्धता होती है, ज्ञानामृत का पान होता है, निज स्वरूप की प्रतीति होती है - ऐसे सिद्ध भगवान को मेरा बार-बार नमस्कार हो / ऐसे सिद्ध भगवान जयवन्त प्रवर्ते, मुझे संसार समुद्र से निकालें, मुझे संसार में गिरने से रोकें, मेरे अष्ट कर्मो का नाश करें, मुझे कल्याण के कर्ता हों, मुझे मोक्षलक्ष्मी की प्राप्ति करावें, मेरे हृदय में निरन्तर वास करें, मुझे स्वयं जैसा बनावें / सिद्ध भगवान और कैसे हैं ? उनको जन्म मरण नहीं है, उनके शरीर नहीं है, उनका विनाश नहीं है, उनका संसार में आना-जाना नहीं है, उनके प्रदेशों में ज्ञान अकंप है / सिद्ध भगवान और कैसे हैं ? अस्तित्व, वस्तुत्व, प्रमेयत्व, प्रदेशत्व, अगुरुलघुत्व, चेतनत्व आदि अनन्त गुणों से पूर्ण हैं, अतः अवगुणों के प्रवेश के लिये उनमें स्थान नहीं है / ऐसे सिद्ध भगवान को पुन: मेरा नमस्कार हो / इसप्रकार श्रीगुरु तथा सिद्ध परमेष्ठी के स्वरूप में एकरूपता रहती है। जैसे सिद्ध हैं वैसा ही शिष्य को बताया तथा ऐसा उपदेश दिया - हे शिष्य ! हे पुत्र ! तू ही सिद्ध सदृश्य है, इसमें संदेह मत कर / सिद्धों के स्वरूप में तथा तेरे स्वरूप में कोई अन्तर नहीं है / जैसे सिद्ध हैं वैसा ही तू है / अब तू स्वयं को सिद्ध के समान देख / तू सिद्ध के समान है या नहीं यह निर्णय तू स्वयं कर ? वैसा (अपने को सिद्ध समान) देखते ही कोई परम आनन्द उपजेगा, वह कहना मात्र नहीं है वास्तव में है। अतः अब तू सावधान हो तथा परिणति को सुल्टी (सीधी) कर / एकाग्र चित्त होकर देख तू ज्ञाता-दृष्टा है, पर को देखने-जानने वाला तू स्वयं है, उसे ही देख, देर मत कर /
SR No.032848
Book TitleGyananand Shravakachar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRaimalla Bramhachari
PublisherAkhil Bharatvarshiya Digambar Jain Vidwat Parishad Trust
Publication Year2010
Total Pages330
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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