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________________ 246 ज्ञानानन्द श्रावकाचार तुम्हें हमारे वचन झूठ प्रतीत होते हैं तथा इनमें तुम्हें अपना भला होना प्रतीत नहीं होता हो तो मेरे वचन स्वीकार मत करो / मुझे तुमसे किसी बात का कोई प्रयोजन नहीं है / दया बुद्धि करके तुम्हें उपदेश दिया है, यदि मानना हो तो मानो, नहीं मानो तो तुम्हारी तुम जानो / __ अब वह सम्यग्दृष्टि पुरुष अपनी आयु तुच्छ शेष रही जानता है / तब दान, पुण्य जो कुछ करना होता है वह अपने हाथ से करता है / फिर जिन-जिन व्यक्तियों से कुछ बात करना हो उनसे बात कर निःशल्य होता है तथा सर्व संसारी नाते-रिश्ते के पुरुषों-स्त्रियों को वहां से वापस जाने को कहकर धार्मिक कार्यों से सम्बन्धित पुरुषों को बुलाकर अपने पास रखता है। यदि स्वयं की आयु नियम से पूरी होना जानता है तो सर्व ही परिग्रह का जीवन पर्यन्त के लिये त्याग करता है। चार प्रकार के आहार का भी जीवन पर्यन्त के लिये त्याग करता है। सारे परिग्रह का भार पुत्रों को सौंपता है तथा स्वयं विशेष रूप से निःशल्य अर्थात वीतराग होता है / यदि अपनी आयु को अवश्य पूरी होना नहीं जानता है, आयु पूरी हो या न हो, ऐसा संदेह हो तो दो-चार घडी आदि काल की मर्यादा कर त्याग करता है, जीवन पर्यन्त के लिये त्याग नहीं करता तथा जिसप्रकार शत्रु को जीतने के लिये सुभट उद्यमी होकर रणभूमि में उतरता है, उसीप्रकार वह भी पलंग से उतरकर सिंह की भांति निर्भय होकर स्थित होता है / किसी प्रकार अंशमात्र भी आकुलता नहीं करता है / कैसा है शुद्धोपयोगी सम्यग्दृष्टि ? जिसके मोक्षलक्ष्मी से पाणिग्रहण की इच्छा प्रवर्तती है, ऐसा अनुराग है कि अभी ही मोक्ष जाकर वरण करलूं / उसने हृदय में मोक्षलक्ष्मी के आकार को उत्कीर्ण कर रखा है, उसकी शीघ्र प्राप्ति चाहता है / उसी के भय से राग परिणति के प्रदेश नहीं बांधता है (रंच मात्र भी पर-वस्तुओं में राग उत्पन्न नहीं होने देता) तथा
SR No.032848
Book TitleGyananand Shravakachar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRaimalla Bramhachari
PublisherAkhil Bharatvarshiya Digambar Jain Vidwat Parishad Trust
Publication Year2010
Total Pages330
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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