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________________ 242 ज्ञानानन्द श्रावकाचार चलाई चली हैं? कदापि नहीं चलती ? ऐसा मुझे यथार्थ ज्ञानभाव हुआ है तथा स्व-पर का यथार्थ निर्णय हुआ है, अत: मुझे ठगने में कौन समर्थ है ? अनादि काल से पर्याय-पर्याय में बहुत ठगाया गया हूं जिसके कारण भव-भव में जन्म-मरण के दु:ख सहे हैं / अतः आप भली प्रकार जान लें कि मेरा तथा आप का इतने ही दिन का सम्बन्ध था, जो अब पूरा हुआ। आप सब को भी आत्म कार्य करना ही उचित है, आप भी अपने शाश्वत निजस्वरूप को सम्हालें / उसमें किसी प्रकार का खेद नहीं है, किसी से याचना नहीं करना है / आपके अपने ही घर में महा अमूल्य निधि है, जिसे सम्हालने से जन्म-मरण के दु:ख दूर हो जाते हैं / संसार में जितने भी दुःख हैं वे सब स्वयं में अज्ञान के कारण अथवा स्वयं को न जानने के कारण हैं, अत: एक ज्ञान की ही आराधना करनी चाहिये। ज्ञान स्वभाव है वही अपना निजस्वरूप है, उसे पाने पर ही जीव महासुखी होता है / उसे न पाने से ही महादुःखी है / ये प्रत्यक्ष देखनेजानने-वाला ज्ञायक पुरुष है वह शरीर से भिन्न है, जो अपना स्वभाव है उसको छोडकर अन्य किस बात में प्रीति करे ? जैसे सोलहवें स्वर्ग का कल्पवासी देव कौतुक के लिये मध्यलोक में आकर किसी रंक के शरीर में प्रवेश करके रंक की सी क्रियायें करने लगे। __ यह कभी तो काठ का भार सर पर रख कर बाजार में बेचने जावे, कभी मिट्टी का पात्र लेकर माता अथवा स्त्री के पास रोटी मांगने लगे। कभी पुत्र -आदि को लेजाकर खिलाने लगे तथा कभी राजा के पास जाकर याचना करने लगे - महाराज ! मैं आजीविका के लिये बहुत दुःखी हूं, मेरा प्रतिपालन करें - कभी टका (एक रुपये का बत्तीसवां भाग, लगभग तीन पैसे ) मजदूरी लेकर हंसिया लेकर खडे गीले हरे घास को काटने लगे। कभी रुपये दो रुपये की वस्तु के खो जाने पर विलाप करने लगे। कैसे विलाप करने लगे ? अरे बारे ! अब मैं क्या करूं, मेरा धन चोर
SR No.032848
Book TitleGyananand Shravakachar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRaimalla Bramhachari
PublisherAkhil Bharatvarshiya Digambar Jain Vidwat Parishad Trust
Publication Year2010
Total Pages330
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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