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________________ 230 ज्ञानानन्द श्रावकाचार दुःख पाता था ? यह बात तो न्याय संगत ही है कि जिसका किया तो कुछ हो नहीं, वह पर का कर्ता कैसे हो ? पर-द्रव्य को अपनी इच्छा के अनुसार परिणमाना चाहे तो दुःख ही होगा क्योंकि पर-द्रव्य तो अपने स्वभाव के अनुसार परिणमेगा, इसकी इच्छा के अनुसार तो परिणमेगा नहीं, तब दु:ख ही होगा। __इसलिये मैं तो केवल मेरे एक ज्ञायक स्वभाव का ही कर्ता हूं तथा उसी का भोक्ता हूं, उसी का वेदन करता हूं, उसी का अनुभव करता हूं। इस शरीर के चले जाने से मेरा कुछ भी बिगाड नहीं है तथा शरीर के रहने से भी मुझे कुछ लाभ नहीं है / इस शरीर में जो जानपने रूप चमत्कार है वह तो मेरा स्वभाव है, इस शरीर का स्वभाव नहीं है / शरीर तो प्रत्यक्ष मुर्दा है, मेरे इस शरीर में से निकलते ही इस शरीर को मुर्दा जानकर जला दिया जावेगा / मेरे कारण ही जगत इस शरीर का आदर करता है / जगत को इसका ज्ञान नहीं की आत्मा तो अलग है तथा शरीर अलग है / इस अज्ञान के कारण ही जगत भ्रम बुद्धि से इस शरीर को अपना जानकर इसमें ममत्व करता है, इसके जाने पर बहुत दु:खी होता है, बहुत शोक करता है / क्या शोक करता है ? हाय ! हाय ! मेरा पुत्र तू कहां गया ? हाय ! हाय ! मेरा पति तू कहां गया ? हाय ! हाय ! पुत्री तू कहां गयी ? हाय ! हाय ! माता तुम कहां गई ? हाय ! हाय ! पिता तू कहां गया हाय ! हाय ! इष्ट भ्राता तू कहां गया ? इत्यादि अनेक प्रकार विरह का विलाप करके अज्ञानी जीव इस पर्याय को सत्य जानकर विलाप करता है तथा महा दु:ख और क्लेश पाता है। ___ ज्ञानी पुरुष इसप्रकार विचार करता है - अहो ! किसका पुत्र, किसकी स्त्री, किसका पति, किसकी पुत्री, किसकी माता, किसका पिता, किसकी हवेली, किसका मंदिर, किसका धन, किसका माल, किसके आभूषण, किसके वस्त्र इत्यादि सारी सामग्री दिखती तो बहुत रमणीक सी हैं, परन्तु
SR No.032848
Book TitleGyananand Shravakachar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRaimalla Bramhachari
PublisherAkhil Bharatvarshiya Digambar Jain Vidwat Parishad Trust
Publication Year2010
Total Pages330
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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