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________________ 222 ज्ञानानन्द श्रावकाचार मरण को जानकर बहुत दु:खी होता है / तब विलाप करता है हाय ! हाय ! अब मैं मर जाऊंगा, यह भोग सामग्री (आगे) कहां से भोग पाऊंगा। ___ मैं किस गति में जाऊंगा ? मुझे अब यहां रख सकने में कोई भी समर्थ नहीं है / अब मैं क्या करूं, किस की शरण में जाऊं, मेरा दुःख किससे कहूं। मेरे जैसा दु:ख किसी को नहीं है / ये सारे भोग मेरे दुश्मन थे, जो अब सब मिलकर मुझे दुःख देने आये हैं / ये नरक जैसे मानसिक दु:ख कैसे भोगूंगा ? कहां तो स्वर्ग के सुख तथा कहां एकेन्द्रिय पर्याय आदि के दुःख ? जहां एक कौडी (एक नये पैसे से भी कम) में अनन्तों (एकेन्द्रिय) जीव बिकते हैं तथा जो कुलहाडियों से छेदे जाते हैं, हांडियों में डालकर पकाये जाते हैं / मैं भी अब ऐसी पर्याय को प्राप्त होऊंगा। हाय! हाय! यह कैसा अनर्थ है ? ऐसे देवों को भी ऐसी एकेन्द्रिय दशा हो जाती है / तब वह अपने परिवार के देवों से कहता है - हे देवो ! आज मुझ पर दुष्ट काल ने जमकर कोप किया है, मुझसे ऐसे देव पद के सुखों को छुडा रहा है, खोटी गति में डाल रहा है, अब आप मुझे बचावें / मैं ऐसे दुःख सहने में असमर्थ हूँ। बहुत क्या कहूँ ? मेरे दुःख की बात सर्वज्ञ देव जानते हैं, अन्य कोई जानने में समर्थ नहीं है / तब परिवार के देव कहने लगते हैं - ऐसे दीनपने के वचन क्यों कहते हो, ऐसी दशा तो सबकी होती है / काल पर किसी का जोर नहीं चलता, समस्त लोक के जीव इस काल के वश में हैं / अब एक धर्म ही शरण है, अत: धर्म की शरण ग्रहण करें तथा आर्तध्यान को छोडें / आर्तध्यान से खोटी तिर्यंच गति मिलती है तथा परम्परा से अनन्त संसार का भ्रमण होता है, अभी कुछ नहीं बिगडा है, अब भी आपने को सम्हालें, सावधान हो जावें तथा अपने सहजानन्द की सम्हाल करें। ___ स्वरूप का रसपान करें, जिससे जन्म-मरण के दु:ख मिट जावें तथा शाश्वत सुख को प्राप्त होवें / इस संसार से तीर्थंकर देव भी डरे, राज संपदा को छोडकर वन में जा बसे, अतः अब आपको भी यह ही कार्य
SR No.032848
Book TitleGyananand Shravakachar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRaimalla Bramhachari
PublisherAkhil Bharatvarshiya Digambar Jain Vidwat Parishad Trust
Publication Year2010
Total Pages330
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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