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________________ अष्टम अधिकार : स्वर्ग का वर्णन आगे अपने इष्ट देव को विनय पूर्वक नमस्कार कर तथा गुण-स्तवन कर सामान्य रूप से स्वर्ग की महिमा का वर्णन करता हूं / उसे हे भव्य ! तू सावधान होकर सुन - दोहा - जिन चौबीसौं वंदि कै, वंदौ सारद माय / गुरु निर्ग्रन्थहि वंदि पुनि, ता से अघ जाय / / पुण्य कर्म विपाक तैं, भये देव सुर राय / आनन्दमय क्रीडा करें, बहु विध भेष बनाय / / स्वर्ग संपदा लक्ष्मी, को कवि कहत बनाय / गणधर भी जाने नहीं, जाने शिव जिनराय / / ऐसा विनयवान होकर शिष्य प्रश्न करता है, वह ही कहते हैं - हे स्वामी! कृपानाथ, दयानिधि, परम उपकारी, संसार समुद्र तारक, दयामूर्ति, हे कल्याण पुंज, आनन्द स्वरूप, तत्त्व ज्ञायक, मोक्ष-लक्ष्मी के अभिलाषी, संसार से परान्मुख, परमं वीतराग, जगत बन्धु, छहों काय के पिता (संरक्षक), मोह विजयी, अशरण की शरण, स्वर्गो के सुख का स्वरूप बताने की कृपा करें। शिष्य कैसा है ? परम विनयवान है, आत्म कल्याण का अर्थी है, संसार के दु:खों से भयभीत है, व्याकुल वचनों वाला है, उसका मन कंपायमान हुआ है अथवा कोमल हुआ है, ऐसा होता हुआ श्री गुरु की प्रदक्षिणा देकर, दोनों हाथ जोडकर, मस्तक से लगाकर श्री गुरु के चरणों में बारंबार नमस्कार कर, उनके चरणों में मस्तक रखकर तथा उनके चरणों की रज मस्तक से लगाकर अपने को धन्य मानता है, कृतकृत्य मानता है, विनय पूर्वक हाथ जोडकर सन्मुख खडा है तथा अवसर पाकर श्री गुरु से
SR No.032848
Book TitleGyananand Shravakachar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRaimalla Bramhachari
PublisherAkhil Bharatvarshiya Digambar Jain Vidwat Parishad Trust
Publication Year2010
Total Pages330
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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