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________________ सामायिक का स्वरूप 199 का काल पूर्ण करे / किसी प्रकार का राग-द्वेष नहीं रखे। स्व-पर की सम्हाल करके यह चिन्मूर्ति, साक्षात् सबको देखने-जानने द्वारा ज्ञातादृष्टा, अमूर्तिक, आनन्दमय, सुख का पुंज,असंख्यात प्रदेशी, तीन लोक प्रमाण, परद्रव्यों से भिन्न मैं अपने निज स्वभाव का कर्ता-भोक्ता, परद्रव्यों का अकर्ता, ऐसा मेरा स्वसंवेदन रूप है जिसकी क्या-क्या महिमा कहूँ ? ___यह जीव तीन लोक में भी पुद्गल द्रव्य पिंड का कर्ता-भोक्ता नहीं है / मोह के उदय के कारण भ्रम-बुद्धि से झूठ ही उस पुद्गल पिंड को अपना मान रखा है, जिसके कारण भव-भव में नरकादि में परम क्लेश प्राप्त करता है / अत: मैं अब सर्वप्रकार से शरीर आदि पर-वस्तुओं का ममत्व छोडता हूँ / यह पुद्गल द्रव्य चाहे जैसे परिणमें मुझे इससे राग-द्वेष नहीं है / यह पुद्गल द्रव्य का प्रसार है वह चाहे छीजे (कम हो) चाहे भीजे, चाहे प्रलय को प्राप्त हो, चाहे एकत्रित हो, मैं इसका गुलाम नहीं हूँ। इसके योग से मेरे ज्ञानानन्द की वृद्धि नहीं होती, ज्ञानानन्द तो मेरा निज स्वभाव है, जो तो उल्टा पर-द्रव्य के निमित्त से घाता गया है / ज्यों-ज्यों पर-द्रव्य के निमित्त से निर्वृत होती है त्यों-त्यों ज्ञानानन्द की वृद्धि होती है जो प्रत्यक्ष अनुभव में आती है / अत: व्यवहार से तो घातिया कर्मो का चतुष्टय ही मेरा परम बैरी है तथा निश्चय से तो मेरा अज्ञान भाव ही मेरा परम बैरी है / अथवा मैं ही मेरा बैरी हूं तथा मैं ही मेरा मित्र हूं / अज्ञान भाव से मैने जो कुछ किया है उसके कारण वैसा ही आकुलतामय फल उत्पन्न हुआ है / नरक में परम दुःखी हुआ, उस दु:ख की बात किससे कहूँ ? सर्व जगत के जीव मोह भ्रम रूप परिणम रहे हैं, भ्रम के कारण अनादि काल से अत्यन्त प्रचुर परम दुःख पाते हैं / मैं भी उन्हीं के साथ अनादि काल से ऐसा ही दु:ख पाता था, अब किसी महा परमयोग से श्री अरिहन्त देव के अनुग्रह तथा जिनवाणी के प्रताप से मुनि महाराज आदि परम धर्मात्मा, दयालु पुरुषों का मिलाप हुआ है तथा उनके वचन रूप अमृत का पान किया है /
SR No.032848
Book TitleGyananand Shravakachar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRaimalla Bramhachari
PublisherAkhil Bharatvarshiya Digambar Jain Vidwat Parishad Trust
Publication Year2010
Total Pages330
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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