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________________ सम्यग्चारित्र 189 चुका अब आपका ही कर्तव्य बाकी रहा है / आपने तारणतरण नाम धराया है, अत: आप अपना नाम रखना चाहें तो मुझे अवश्य तारें क्योंकि दु:खियों को तारने के कारण ही आपकी कीर्ति त्रिलोक में फैली है तथा आगे अनन्त काल तक रहेगी। हे भगवन ! आपने अद्वैत व्रत (ऐसा कोई दूसरा नहीं, इसप्रकार का नाम) धारण किया है, आपने अनन्त जीवों को मोक्ष दिया है / अंजन चोर जैसे अधर्मी पुरुषों को तो आपने शीघ्र ही अल्प काल में मोक्ष दिया तथा भरत चक्रवर्ती जैसे बहुत ( बाह्य ) परिग्रही को एक अन्तर्मुहूर्त में केवलज्ञान दिया। श्रेणिक महाराजा, जिनधर्म का अविनय करने वाले बौद्धमति, ने मुनि के गले में सर्प डाला। उस पाप से सातवें नरक की आयु का बंध किया, उसे तो आपने कृपा करके एक भवतारी कर दिया। आपने बहुत से अनन्त जीवों को तारा है सो अब हे प्रभो! मेरे बारे में देर क्यों कर रखी है, इसका कारण क्या है यह मैं नहीं जानता ? आप तो वीतराग परम दयालु कहलाते हैं, तो फिर मुझ पर दया क्यों नहीं आती ? मेरे बारे में ऐसा कठोर परिणाम क्यों किया, आपको यह उचित नहीं है / मैं बहुत पापी था, उन पापों की भी आपके पास पहले ही क्षमा करा चुका हूँ, अतः अब मेरा कोई अपराध भी नहीं रहा है / इसलिये अब मैं नियम से ऐसा मानता हूँ कि मेरे थोडे ही भव बाकी रहे हैं, वह एक आपका ही प्रताप है / आपके ऐसे यश गाने से कैसे तृप्त हुआ जा सकता है ? धन्य आपका केवलज्ञान, धन्य आपका केवलदर्शन, धन्य आपका केवल सुख, धन्य आपका अनन्त वीर्य, धन्य आपकी वीतरागता, धन्य आपका रत्नत्रय धर्म, धन्य आपके गणधर आदि मुनि / श्रावक, इन्द्र आदि सम्यग्दृष्टि देव-मनुष्य, जिन्होंने आपकी आज्ञा सर पर धारण की है आपकी महिमा गाते हैं / धन्य आपकी महिमा कहां तक कहें ? आप जयवन्त प्रवर्ते तथा हम भी आपके चरणों के निकट सदैव बसैं एवं मेरी महा प्रीति भी जयवन्त प्रवर्ते /
SR No.032848
Book TitleGyananand Shravakachar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRaimalla Bramhachari
PublisherAkhil Bharatvarshiya Digambar Jain Vidwat Parishad Trust
Publication Year2010
Total Pages330
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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