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________________ 180 ज्ञानानन्द श्रावकाचार हे भगवान ! आपका ध्यान रूपी दर्पण कितना बड़ा है ? उसकी महिमा कहाँ तक कहें ? हे भगवान, हे कलानिधान, हे दयामूर्ति ! हम क्या करें, प्रथम तो हमारा स्वरूप हमको दिखता नहीं है तथा हमको दु:ख देने वाला प्रतीत नहीं होता, उसका हम क्या कहें ? हमने पूर्व में अपराध किये हैं, जिनके कारण हमको कर्म तीव्र दुःख देते हैं। ये कर्म किसप्रकार उपशान्त हों यह भी हमको दिखता नहीं है / हमारा निज स्वरूप कैसा है, कैसा है हमारा ज्ञान, कैसा है हमारा दर्शन, कैसा है हमारा सुख-वीर्य / ___ हम कौन हैं, हमारे द्रव्य-गुण-पर्याय क्या हैं, पूर्व में हम किस क्षेत्र में किस पर्याय में थे ? अब यहां इस क्षेत्र, इस पर्याय में किस कारण आ पहुंचे हैं तथा अब हमारा कर्तव्य क्या है, किस रूप परिणम रहे हैं, उसका फल अच्छा होगा या बुरा, फिर हम कहां जावेंगे, कैसी-कैसी पर्याय धारण करेंगे, यह हम कुछ जानते नहीं है / अतः ज्ञान बिना हमारे सुखी होने का उपाय कैसे बने ? हमें इतना ज्ञान का क्षयोपशम होने पर भी हमें परम सुखी होने का उपाय भासित नहीं हो पाता तो फिर एकेन्द्रिय, अज्ञानी तिर्यंच जीव अथवा नारकी जीव जो महाक्लेश से पीडित हैं, जिनको आंख के फडकने मात्र समय के लिये भी निराकुलता नहीं है, उन जीवों को तो दूषण ही क्या ? ___ परन्तु धन्य है आपकी दयालुता, धन्य है आपका सर्वज्ञ ज्ञान, धन्य है आपका अतिशय, धन्य है आपकी परम पवित्र बुद्धि, धन्य है आपकी प्रवीणता तथा विचक्षणता, जिससे आपने दया करके सर्व प्रकार वस्तु का स्वरूप भिन्न-भिन्न दिखाया। आत्मा का निज स्वरूप है वह अनन्त दर्शन, अनन्त ज्ञान, अनन्त सुख, अनन्त वीर्य का धनी है तथा आपके स्वयं के सदृश्य है यह बताया। पर-द्रव्यों से रागादि भाव के कारण उलझाव है यह बताया / जीव अपने राग-द्वेष-मोह भावों के कारण कर्मो से बंधता है तथा उनके उदय काल में महादुःखी होता गया। वीतराग भावों से कर्म से निबंध, निराश्रव होता है यह दिखाया। वीतरागी भावों
SR No.032848
Book TitleGyananand Shravakachar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRaimalla Bramhachari
PublisherAkhil Bharatvarshiya Digambar Jain Vidwat Parishad Trust
Publication Year2010
Total Pages330
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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