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________________ 178 ज्ञानानन्द श्रावकाचार तीन वातवलयों से वेष्टित हैं तथा तीन लोक एक महास्कंध रूप है / उसमें आठ पृथ्वी, स्वर्ग के विमान, ज्योतिष विमान स्थित हैं / इतने एकेन्द्रिय जीव, इतने दो इन्द्रिय जीव, इतने तीन इन्द्रिय जीव, इतने चार इन्द्रिय जीव, इतने पंचेन्द्रिय जीव, इतने नारकी, इतने तिर्यंच, इतने मनुष्य, इतने देव, इतने पर्याप्त, इतने अपर्याप्त, इतने सूक्ष्म, इतने बादर, इतने निगोद के जीव, इतने अतीत काल के समय हैं जो अनन्त हैं तथा उनसे अनन्त वर्गणा स्थान गुणे जीव राशि का प्रमाण है। __उनसे भी अनन्त वर्गणा स्थान गुणा पुद्गल राशि का प्रमाण है। उनसे भी अनन्त वर्गणा स्थान गुणा अनन्त काल का प्रमाण है / उनसे भी अनन्त वर्गणा स्थान गुणा आकाश द्रव्य के प्रदेशों का प्रमाण है / उससे भी अनन्त वर्गणा स्थान गुणा धर्म द्रव्य, अधर्म द्रव्य के अगुरुलघु नामक गुण के अविभागी प्रतिच्छेदों का प्रमाण है। उससे भी अनन्त गुणा (किन्तु) सर्व जीवों से कम तथा अनन्त वर्गणा स्थान गुणा, एक अलब्ध पर्याप्तक जीव के एक अक्षर के अनन्तवें भाग ज्ञान (के अविभागी प्रतिच्छेद हैं ) है, जिसका नाम पर्याय ज्ञान है / उससे कम (ज्ञान) किसी भी जीव का त्रिलोक तथा तीन काल में होता नहीं है तथा इतना यह ज्ञान निरावरण रहता है, उसके ऊपर ज्ञानावरणी कर्म का आवरण नहीं आता। यदि आवरण आ जावे तो सर्व ज्ञान का घात हो जावे, सारा ज्ञान घाते जाने पर (जीव) जड हो जावे, जो हो सकता नहीं / इसप्रकार इस पर्याय ज्ञान में जितने अविभागी प्रतिच्छेद पाये जाते हैं, उनसे अनन्त गुणे जघन्य क्षायिक सम्यक्त्व के अविभागी प्रतिच्छेद होते हैं, ऐसा ही उपदेश आपने दिया है। एक सई की नोक पर असंख्यात लोक प्रमाण स्कंध होते हैं। एकएक स्कंध में असंख्यात लोक प्रमाण अंडर होते हैं / एक-एक अंडर में असंख्यात लोक प्रमाण आवास होते हैं / एक-एक आवास में असंख्यात लोक प्रमाण पुलवी होते हैं।
SR No.032848
Book TitleGyananand Shravakachar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRaimalla Bramhachari
PublisherAkhil Bharatvarshiya Digambar Jain Vidwat Parishad Trust
Publication Year2010
Total Pages330
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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