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________________ 176 ज्ञानानन्द श्रावकाचार प्रश्न विचार रखे थे (अर्थात् उन्हें तत्व के सम्बंध में जो-जो भी शंकायें थीं ) उन सबका उनको उनकी ही भाषा में समाधान मिल जाता है / ____ इसके साथ ही अनेक प्रकार का अन्य उपदेश हुआ पर फिर भी अनन्तानन्त तत्व का उपदेश शेष रह गया। जैसे मेघ तो अपरंपार एक ही प्रकार के जल की वर्षा करता है, पर आडू अथवा नारियल आदि जाति के वृक्ष (अर्थात भिन्न-भिन्न जाति के वृक्ष) अपनी-अपनी सामर्थ्य के अनुसार जल को ग्रहण कर अपने स्वभाव रूप परिणमा लेते हैं। नदी, तलाब, कुआ, बावडी आदि जलाशय अपनी पात्रता के अनुसार जल धारण करते हैं फिर भी बहुत-सा जल व्यर्थ बह जाता है अथवा कुछ जल की कमी भी रह जाती है, उसीप्रकार जिनवाणी का उपदेश जानना / (यहां आशय ऐसा समझना कि जितना उपदेश हुआ है उसमें कुछ तो ऐसा भी होता है जिसे कोई ग्रहण नहीं कर पाता तथा ऐसा भी होता है कि तीर्थंकर भगवान की आयु पूर्ण हो जाने के कारण तत्त्व का सम्पूर्ण उपदेश हो भी नहीं पाता)। दिव्यध्वनि में उपदेश :- हे भगवान ! उस दिव्यध्वनि में आपने ऐसा उपदेश दिया है कि छह द्रव्य अनादि-निधन हैं। उनमें पांच द्रव्य तो अचेतन हैं, जड हैं / एक जीव नाम का द्रव्य चेतन है / उन छह द्रव्यों में पुद्गल नाम का द्रव्य मूर्तिक है, शेष पांच अमूर्तिक हैं / इन्हीं छह द्रव्यों के समुदाय को लोक कहते हैं / जहां केवल एक आकाश द्रव्य ही है शेष पांच द्रव्य नहीं हैं उसे अलोकाकाश कहते हैं। लोक और अलोक के समुदाय रूप आकाश एक अनन्त प्रदेशी है तथा तीन द्रव्य - धर्मद्रव्य, अधर्मद्रव्य, एक जीव के प्रदेश (प्रदेशों का समूह) - प्रत्येक एक-एक हैं तथा लोक के बराबर असंख्यात प्रदेशी हैं तथा काल के कालाणु असंख्यात हैं जो प्रत्येक एक-एक प्रदेश मात्र है / जीव द्रव्य में प्रत्येक जीव असंख्यात प्रदेशी, तीन लोक के प्रदेशों के बराबर प्रदेश वाला है तथा जीवों की संख्या से अनन्त गुणे पुद्गल द्रव्य हैं
SR No.032848
Book TitleGyananand Shravakachar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRaimalla Bramhachari
PublisherAkhil Bharatvarshiya Digambar Jain Vidwat Parishad Trust
Publication Year2010
Total Pages330
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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