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________________ 164 ज्ञानानन्द श्रावकाचार ___(5) विविक्त शय्यासन :- शीत काल में नदी, तलाब, चौहट आदि जहां शीत अधिक होती है उन स्थानों पर ठहरना, ग्रीष्म में पर्वत के शिखर, रेत के टीले अथवा चौहट आदि में ठहरना, वर्षा काल में वृक्ष के नीचे ठहरना आदि तीनों ऋतुओं में उपाय करके (राग-द्वेष को उत्पन्न करने वाले आसन, शैय्या आदि का त्याग करना) परिषह सहना तथा परिषह सहने में दृढ रहना विविक्त शय्यासन तप कहलाता है। (6) काय क्लेश तप :- जिस-तिस प्रकार शरीर को कृश करना क्योंकि शरीर को कृश करने से मन भी कृश होता है, उसे काय क्लेश तप कहते हैं। उपरोक्त बाह्य तपों से (नीचे कहे जाने वाले) अभ्यन्तर तपों का फल विशेष होता है, ऐसा जानना / (7) प्रायश्चित तप :- अपने शुद्ध स्वभाव में, प्रतिज्ञा अथवा संयम आदि में अनजाने में अथवा जानकारी में अल्प अथवा बहत दोष लग गया हो उसे ज्यों को त्यों गुरु को बताना, दोष को अंश मात्र भी न छुपाना, तथा गुरु जो दंड दे उसे स्वीकार कर पुनः प्रतिज्ञा, संयम, व्रत आदि में हुये छेद को स्थापन करना, उसे प्रायश्चित तप कहते हैं / ___(8) विनय तप :- श्री अरिहन्त देव, पंच परम गुरु, जिनवाणी, जिनमंदिर, जिनदेव का उत्कृष्ट विनय करना तथा मुनि, आर्यिका, श्रावक, श्राविका चतुर्विध संघ का विनय अथवा दस प्रकार के मुनि संघ का विनय करना अथवा अपने से सुगुणों में अधिक अव्रत सम्यग्दृष्टि आदि धर्मात्मा पुरुषों का विनय करना विनय तप कहलाता है / ___(9) वैयावृत्य तप :- मुनि, आर्यिका आदि धर्मात्मा सम्यग्दृष्टि पुरुषों की वैयावृत्य करके पांव दबाना आदि सेवा करना अथवा आहार देना अथवा उन्हें जिसप्रकार का खेद हो उसे जिस किसी प्रकार दूर करना, रोग हो तो औषध देना इत्यादि विशेष चाकरी करना वैयावृत्य तप है। (10) स्वाध्याय तप :- वाचना, पृच्छना, अनुप्रेक्षा, आम्नाय,
SR No.032848
Book TitleGyananand Shravakachar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRaimalla Bramhachari
PublisherAkhil Bharatvarshiya Digambar Jain Vidwat Parishad Trust
Publication Year2010
Total Pages330
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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