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________________ 155 सम्यग्चारित्र निमित्तभूत है / दुःख का कारण तो अपने अज्ञान आदि भाव हैं तथा सुख के लिये कारण अपने ज्ञान आदि भाव हैं। ऐसा जानकर श्रद्धान में परद्रव्य का त्यागी हुआ है, इसलिये इसे परद्रव्य से राग (उपलक्षण से द्वेष भी) नहीं है / जैसे फिटकरी-लोंद से कषायले किये हुये वस्त्र पर रंग (पक्का रंग) चढता है, बिना कषायले किये हुये वस्त्र को दीर्घकाल तक भी रंग के समूह में रखा। रखने पर भी उसे तो रंग लगता नहीं, ऊपर ही ऊपर रंग दिखता है। वस्त्र को पानी में धोने पर रंग तुरन्त उतर जाता है / कषायले किये हुये वस्त्र का रंग किसी भी प्रकार उतरता नहीं है। __ उसीप्रकार सम्यग्दृष्टि के तो कषायों से रहित जीव का परिणाम है, अत: उनके दीर्घ काल पर्यन्त परिग्रह की भीड (बहुत परिग्रह) भी रहे तो भी कर्म मल नहीं लगता / मिथ्यादृष्टि के कषायों से परिणाम कषायले हैं, अत: कर्मो से सदैव लिप्त रहता है / जैसे गुमास्ता और साहुकार गुमास्ते को जैसे धंधे में हानि-लाभ होने पर कोई असर नहीं होता, उसीप्रकार सम्यग्दृष्टि को कर्म-मल नहीं लगता, पर साहुकार को हानि-लाभ का असर तुरन्त होता है, उसीप्रकार मिथ्यादृष्टि को तुरन्त कर्म-मल लगता है / ___माता और धाय बालक को एक ही प्रकार रखे, एक-सा लालनपालन करे, परन्तु माता को अन्तरंग में राग भावों का बाहुल्य है / उसीप्रकार सम्यग्दृष्टि -मिथ्यादृष्टि के राग भावों का अल्प बहुत्व विशेष (अन्तर) जानना / इस ही लिये वीतराग भाव सहित सावध योग के त्याग को ही सम्यग्चारित्र कहा है / वीतराग भाव सहित सावद्य योग का त्याग ही सम्यग्चारित्र का स्वरूप जानना / इति सम्यग्चारित्र कथन पूर्ण हुआ। द्वादशानुप्रेक्षा आगे द्वादश अनुप्रेक्षा का स्वरूप कहते हैं / द्वादश का अर्थ है बारह (12) और अनुप्रेक्षा बार-बार चितवन करने को कहा जाता है / यहां
SR No.032848
Book TitleGyananand Shravakachar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRaimalla Bramhachari
PublisherAkhil Bharatvarshiya Digambar Jain Vidwat Parishad Trust
Publication Year2010
Total Pages330
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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