SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 166
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ 151 सम्यग्दर्शन तो सर्वत्र न्याय है कि जिन कारणों से उर-झार पडा हो उससे विपरीत उष्णता के निमित्त से वात-रोग की निर्वृत्ति होगी, ऐसा नहीं है कि शीत के निमित्त से उत्पन्न हुआ वात-रोग हो यह पुनः शीत के निमित्त से ही मिट जावे / इसप्रकार तो रोग मिटेगा नहीं उल्टा तीव्र बढेगा ही। उसीप्रकार पर-द्रव्य से राग-द्वेष करके जीव नाम का पदार्थ कर्मो से उलझता है। वीतराग भाव हुये बिना सुलझ सकता नहीं तथा वीतराग भाव तो सात तत्त्वों का यथार्थ स्वरूप जानने से ही होता है। अतः सात तत्त्वों के जानपने को ही निश्चय सम्यक्त्व होने के लिये असाधारण, अद्वितीय तथा एक मात्र कारण बताया है / इसप्रकार सम्यक्दर्शन का स्वरूप जानना / अत: आचार्य हित करके तथा दया बुद्धि करके कहते हैं - कि सर्व ही जीव सम्यक्त्व को धारण करें, सम्यक्दर्शन के बिना तीन काल में भी मोक्ष मिल सकता नहीं, चाहे जितना तपश्चरण कर लो। जिस कार्य का जो कारण होता है उसी कारण से कार्य की सिद्धि होती है / सर्व प्रकार से यह नियम है / इति सम्यक्दर्शन स्वरूप वर्णन पूर्ण हुआ।
SR No.032848
Book TitleGyananand Shravakachar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRaimalla Bramhachari
PublisherAkhil Bharatvarshiya Digambar Jain Vidwat Parishad Trust
Publication Year2010
Total Pages330
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy