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________________ 147 विभिन्न दोषों का स्वरूप तीन मूल कारण कहे हैं - पहले मुख्य रूप से जैन सिद्धान्त ग्रन्थों का अवलोकन करना चाहिये। जितने सम्यग्चारित्र आदि उत्तरोत्तर धर्म हैं उनकी सिद्धि सिद्धान्त ग्रन्थों के अवलोकन से ही होती है / अत: बांचना, पूछना, अनुप्रेक्षा, आम्नाय तथा धर्मोपदेश - इन पांच प्रकार से स्वाध्याय निरन्तर करना चाहिये। बांचना अर्थात शास्त्र को पढना / पृच्छना अर्थात (शंका होने पर समाधान के लिये) प्रश्न करना, अनुप्रेक्षा अर्थात बारबार चितवन करना, आम्नाय अर्थात समय पर उस समय पढने योग्य जो पाठ हो उसे पढना (अथवा निर्णय कर उसे याद रखना), धर्मोपदेश अर्थात परमार्थ धर्म का अन्यों को उपदेश देना। सात तत्त्व आगे सात तत्त्वों का स्वरूप प्रारम्भ से कहते हैं / चेतना जीव का लक्षण है, जिसमें चेतनपना हो उसको जीव कहते हैं / जिसमें चेतनपना नहीं है उसे अजीव कहते हैं / जो द्रव्य कर्म आने के लिये कारण हो उसे आस्रव कहते हैं / यह आस्रव दो प्रकार का है - (1) द्रव्य आस्रव तो कर्म वर्गणा (के ग्रहण) को कहते हैं तथा (2) भाव आस्रव कर्म की शक्ति, अनुभाग को कहते हैं / भावास्रव में मिथ्यात्व तो पांच प्रकार का है, अविरति के बारह भेद हैं, कषाय के पच्चीस भेद हैं तथा योग पन्द्रह प्रकार का है, ये सत्तावन आस्रवभाव कहे जाते हैं / यहां इसप्रकार चार जाति के (मिथ्यात्व, अविरति, कषाय, योग) जीव के भाव जानना / अब द्रव्यास्रव तथा भावास्रव के अभाव का कथन करते हैं / पूर्व से जो द्रव्यकर्म आत्मा के साथ बंधे थे उनकी संवर पूर्वक एकदेश निर्जरा का होना (बंधे कर्मों का आत्मा से अलग होना) निर्जरा कहलाता है / जीव के रागादि भावों का निमित्त पाकर कर्म वर्गणाओं का आत्मा प्रदेशों के साथ बंधना बंध कहलाता है / द्रव्य कर्म के उदय का अभाव होना तथा उनकी सत्ता का भी अभाव होना, आत्मा के अनन्त चतुष्टय भाव का प्रकट होना मोक्ष
SR No.032848
Book TitleGyananand Shravakachar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRaimalla Bramhachari
PublisherAkhil Bharatvarshiya Digambar Jain Vidwat Parishad Trust
Publication Year2010
Total Pages330
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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