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________________ 134 ज्ञानानन्द श्रावकाचार आचार्य कहते हैं - धिक्कार हो इस मोह को जिसके कारण वस्तु का स्वभाव यथार्थ भासित नहीं होता, विपरीत ही भासित होता है, इस ही लिये अनन्त संसार में भ्रमण करता है / मोह के उदय से ही यह जीव जिनेन्द्र देव को छोडकर कुदेव आदि को पूजता है / मोही जीव क्या-क्या अकल्याण की बात नहीं करता तथा अपने को संसार में नहीं डुबोता ? अर्थात मोही जीव अकल्याण के ही कार्य करता है तथा संसार में भ्रमता रहता है। स्त्री की शर्म और बेशर्म का वर्णन आगे स्त्रियों की शर्म का और बेशर्म का स्वरूप कहते हैं : स्त्री को पगडी की शर्म हो वह तो वहां स्वयमेव ही नहीं है तथा मूंछ की शर्म होती है तो मूंछ ही नहीं है / आंखों की शर्म हो तो आंखें काली कर डाली हैं / नाक की शर्म हो सो नाक को बींधा लिया है / छाती का गड्डा सा हो तो आडी कांचली (चोंली) पहन ली / भुजा का पराक्रम हो सो हाथों में चूडियां पहन ली / लक्षणों अथवा हथेली की रेखाओं द्वारा पहचाने जाने का भय हो तो उन्हें मेहंदी से लाल कर लिया / कच्छे की शर्म हो सो कच्छा खोल डाला / मन की कठिनता (गाढापन) हो तो मन मोह तथा काम से विह्वल हो गया / मुख की शर्म हो सो मुख को वस्त्र से आच्छादित कर (ढक) लिया, मानों मुंख को ढका कर वह ऐसा भाव जनाती है कि कामी पुरुष हमारे मुख को देखकर नरक मत जाओ / जंघाओं की शर्म हो सो घाघरा (पेटीकोट) पहन लिया / इत्यादि शर्म के बहुत कारण होते हैं, उन्हें कहां तक कहें / __इसप्रकार ये स्त्रियां नि:शंक, निर्लज्ज स्वभाव वाली होती हैं / बाहर में तो, ऐसी शर्म दिखाती हैं कि अपना सर्व अंग कपडों द्वारा आच्छादित रखती हैं फिर भी भाई, पिता-माता, पुत्र, देवर, जेष्ट आदि कुटुम्ब के सदस्यों के सामने गाती हैं तथा मनमाने विषयों का पोषण करती हैं /
SR No.032848
Book TitleGyananand Shravakachar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRaimalla Bramhachari
PublisherAkhil Bharatvarshiya Digambar Jain Vidwat Parishad Trust
Publication Year2010
Total Pages330
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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