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________________ 123 विभिन्न दोषों का स्वरूप प्रति समय सर्व जीव आकाश में से नोकर्म जाति की वर्गणाओं का ग्रहण करते हैं तथा पर्याप्ति रूप परिणमाते हैं / कार्माण के तीन समय (विग्रह गति) अन्तराल को छोडकर, समुदघातके प्रतर-काल युगल के दो समयों को पूर्ण कर (लोकपूर्ण के) एक समय को छोडकर सिद्ध, अयोग गुणस्थानवर्ती केवली को छोडकर, आयु के एक समय (बाकी रहने) पर्यन्त त्रिलोक के सर्व जीव ग्रहण करते हैं / इस अपेक्षा तेरहवें गुणस्थान पर्यन्त आहारक कहा है, वह तो हम भी मानते हैं / परन्तु कवला-आहार छठे गुणस्थान तक ही है, अत: आहार संज्ञा छठे गुणस्थान तक ही है। कार्माण -आहार तो आठों कर्मों के ग्रहण करने को कहा जाता है, वह तो सिद्ध तथा अयोग-केवली के अतिरिक्त सर्व जीव प्रथम गुणस्थानवर्ती से लेकर तेरहवें गुणस्थान के अंत तक आयु सहित आठ अथवा आयु को छोडकर शेष सात कर्मों का ग्रहण करते हैं अथवा सातावेदनीय एक कर्म का ही ग्रहण करते हैं / इसप्रकार छह प्रकार के आहार का स्वरूप जानना / अतः केवली को कवलाहार कहना संभव नहीं है / परन्तु जो पूर्वापर विचार से रहित हैं, वे ऐसा मानते हैं। ___ श्वेताम्बर मत में भी आहार संज्ञा छठे गुणस्थान तक ही कही गयी है / मोह के मारे हुये, अहंकारमति अपने पक्ष को पकडे इसका (इस कथन का) विचार ही नहीं करते, कि ये आहार कैसा है तथा तेरहवें गुणस्थान तक भी जो आहारक कहा गया है, वह कैसे कहा गया है, ऐसा विचार ही उत्पन्न नहीं होता / यह तो न्याय ही है कि स्वयं के अवगुण यदि छुप नहीं सकते हों तो अपने से जो बडे हों उनके अवगुण पहले उजागर किये जाते हैं। जैसे सर्व अन्य मतियों ने, वे जिन विषय भोगों का सेवन करते आये थे, उन्हें परमेश्वर के भी (वे विषय भोग) कल्पित कर लिये। उसी प्रकार श्वेताम्बरों ने, अपने एक दिन में बहुत बार भोजन करना चाहने के कारण
SR No.032848
Book TitleGyananand Shravakachar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRaimalla Bramhachari
PublisherAkhil Bharatvarshiya Digambar Jain Vidwat Parishad Trust
Publication Year2010
Total Pages330
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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