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________________ विभिन्न दोषों का स्वरूप 119 स्याल रात्रि के समय नगर के समीप आकर विश्राम करते हैं, उसीप्रकार स्याल के सदृश्य ये भ्रष्ट मुनि भी नगरों का आश्रय लेते हैं / प्रभात के समय ये मुनि तो सामायिक करने बैठेंगे तथा नगर की स्त्रियां गोबर-पानी के लिये नगर के बाहर आवेंगी, वे इनकी वैराग्य संपदा लट ले जावेंगी। तब निर्धन होकर नीच गति को जा प्राप्त होंगे तथा इस भव में महानिंदा को प्राप्त होंगे। नगर के निकट रहने मात्र से ही मुनि भ्रष्टता को प्राप्त होते हैं, तब अन्य परिग्रहों के धारक कुगुरुओं की क्या बात ? वे गुरु भी भ्रष्ट होते होते सब भ्रष्ट हुये तथा अनुक्रम से अधिक भ्रष्ट होते गये, जो प्रत्यक्ष इस काल में देखे जाते हैं। ___ इसीप्रकार काल दोष से राजा भी भ्रष्ट हुये तथा जिनधर्म के द्रोही हुये, इस भांति सर्व प्रकार धर्म का नाश होता जान जो धर्मात्मा पुरुष रहे थे, उन्होंने विचारा कि अब क्या करना ? केवली, श्रुतकेवली का तो अभाव हुआ तथा गृहस्थाचार्य पहले ही भ्रष्ट हो चुके हैं, राजा तथा मुनि भी सब भ्रष्ट हुये, अब धर्म किसके सहारे रहेगा ? हमें ही धर्म करो रक्षा के लिये कुछ करना है, अतः अब श्रीजी के सम्मुख ही पूजा करो तथा श्रीजी के सम्मुख ही शास्त्र पढो / ___(नोट :- इससे आगे अलग प्रकार के टाइप में लिखा गया प्रकारण दि. जैन मुमुक्षु मंडल, जैन मंदिर, भोपाल द्वारा सन 2000 में विदिशा से प्रकाशित इस ग्रन्थ के पृष्ठ नम्बर 91 की लाईन नम्बर 17 से पृष्ठ नम्बर 92 के अन्त तक, में दिया गया है, पर इसी संस्था द्वारा सन 1987 में ढूंढारी में प्रकाशित प्रथम संस्करण में नहीं है / पाठकों के लिये उपयोगी समझकर यहां दिया जा रहा है।) ___ "देव से विनती करने लगे हे भगवान! कुवेष धारियों को जिनमंदिर से बाहर निकालो, ये भगवान का अविनय करते हैं, आपको (स्वयं को) पुजाते हैं तथा मंदिर को घर समान कर लिया है, सो इस बात का महान पाप जानना चाहिये / इन गृहस्थ धर्मात्माओं ने इन कुवेशियों को हलाहल
SR No.032848
Book TitleGyananand Shravakachar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRaimalla Bramhachari
PublisherAkhil Bharatvarshiya Digambar Jain Vidwat Parishad Trust
Publication Year2010
Total Pages330
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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