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________________ 114 ज्ञानानन्द श्रावकाचार चक्रवती भरत ने दान देने का विचार किया तो द्रव्य तो बहुत पर लेने वाला कोई पात्र नहीं था, तब उसने नगर के सब लोगों को बुलाया तथा मार्ग में हरितकाय उगवादी तथा कुछ मार्ग प्रासुक रखा / सर्व लोगों को आज्ञा दी कि इस अप्रासुक मार्ग से आवें। तब जिनका हृदय निर्दय था वे बहुत लोग तो उसी हरितकाय पर पांव रख कर चले गये, तथा जिनके चित्त दया रूपी जल से भीगे थे वे वहां ही खडे रहे, आगे नहीं गये। ___चक्रवर्ती ने पुन: उसी अप्रासुक मार्ग से आने को कहा। तब उस लोगों ने उत्तर दिया कि हम तो किसी भी प्रकार हरितकाय की विराधना करके नहीं आवेंगे। भरत ने उन पुरुषों को दयावान जानकर प्रासुक मार्ग से बुलाया, तथा उनसे कहा - आप धन्य हैं, आपके हृदय में दया भाव है, अतः अब हम जो कहें वह करो / सम्यक्दर्शन-ज्ञान, चारित्र का तो तीन तार का कंठसूत्र अर्थात जनेऊ कंठ में पहनो, पाक्षिक श्रावक के व्रत धारण करो तथा गृहस्थ कार्य की प्रवृत्ति चलाओ। दान लो तथा दान दो, इसमें किसी प्रकार का दोष नहीं है / आप लोग हमारे द्वारा मान्य होंगे / अत: वे वैसा ही करने लगे तथा वे ही गृहस्थाचार्य कहलाये। बाद में वे ही ब्राह्मण कहलाये। ब्राह्मणकाल की उत्पत्ति कुछ काल बाद (भरत चक्रवर्ती ने) आदिनाथ भगवान से पूछा कि ये कार्य मैंने उचित किया अथवा अनुचित? तब भगवान की दिव्यध्वनी में ऐसा उपदेश आया - तुमने यह कार्य विरुद्ध (अनुचित) किया है / आगे भगवान शीतल्लनाथ तीर्थंकर के समय ये सब भ्रष्ट होगें, तथा अन्यमति होकर जिनधर्म के विरोधी होंगे / इस पर भरत के मन में बहुत खेद हुआ तथा क्रोध कर इसका निराकरण करने का प्रयास किया, पर होनहार के वश वह मत प्रचुर रूप से फैला, उसकी व्युच्छिति नहीं हो सकी (उनका उच्छेद नहीं हो सका) / भगवान आदिनाथ की दिव्यध्वनी में उपदेश हुआ कि ये तो ऐसा ही होना था, भरत तुम खेद मत करो / इसप्रकार
SR No.032848
Book TitleGyananand Shravakachar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRaimalla Bramhachari
PublisherAkhil Bharatvarshiya Digambar Jain Vidwat Parishad Trust
Publication Year2010
Total Pages330
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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