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________________ 110 ज्ञानानन्द श्रावकाचार जिमावे / कोई भी विमुख न रहे, नित्य प्रसन्न रहें / कुत्ते, बिल्ली आदि सभी तिर्यन्चों का भी पोषण करे, वे भी भूखे न रहें / फिर भले दिन, भले मुहूर्त में शास्त्रानुसार प्रतिष्ठा हो, बहुत दान बांटे, इत्यादि बहुत महिमा हो / इसप्रकार प्रतिष्ठित प्रतिमाजी ही पूज्य हैं, बिना प्रतिष्ठा के पूजने योग्य नहीं। ___ यदि किसी प्रतिमाजी को अजानकारी में पूजे जाते एक सौ वर्ष हो गये हों तो वह प्रतिमाजी भी पूज्य है। अंगहीन प्रतिमाजी पूज्य नहीं है, उपांगहीन पूज्य है / जो प्रतिमाजी अंगहीन हो गयी हो, उसे ऐसे पानी में, जो कभी खत्म न हो, रख दें / इसका विशेष स्वरूप जानना हो तो “प्रतिष्ठापाठ” से अथवा “धर्म संग्रह श्रावकाचार” आदि अन्य ग्रन्थों से जान लेना, यहां संक्षेप में स्वरूप लिखा है। इसप्रकार सदगृहस्थ धर्मबुद्धि पूर्वक विनय सहित परमार्थ के लिये जिन मंदिर का निर्माण कराता है एवं नाना प्रकार के चमर, छत्र, सिंहासन, कलश आदि उपकरण चढाता है / वह पुरुष बहुत अल्प काल में ही त्रैलोक्य पूज्य पद प्राप्त करता है / उसके छत्र पर भी तीन छत्र फिरते हैं तथा अनेक चमर ढुलते हैं / इन्द्र आदि संसारियों की तो बात ही क्या ? इसप्रकार चौथे काल के भक्त पुरुष मंदिर बनवाते थे, उसका स्वरूप एवं फल कहा। __ पंचमकाल में मंदिर निर्माण का स्वरूप :- अब पंचम काल में मंदिरजी बनता है, उसका स्वरूप कहते हैं - गौरव सहित, मान का आशय लिये तथा महंत पुरुषों को पूछे बिना ही अपनी इच्छा अनुसार जिनमंदिर की रचना जिस किसी स्थान पर कराते हैं / मंदिरजी को लिये द्रव्य (धन) का संकल्प किये बिना ही धन लगाते हैं, अथवा संकल्प किये धन को अपने गृहस्थपने के कार्यों में लगाते हैं अथवा नारियल आदि निर्माल्य वस्तुयें भंडार में एकत्रित कर उसे बेचकर प्राप्त द्रव्य को मंदिजी
SR No.032848
Book TitleGyananand Shravakachar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRaimalla Bramhachari
PublisherAkhil Bharatvarshiya Digambar Jain Vidwat Parishad Trust
Publication Year2010
Total Pages330
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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