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________________ 107 विभिन्न दोषों का स्वरूप विचार करता कि मुझे इतना द्रव्य खर्च करना है, तथा जैसे परिणाम होते वैसा कार्य करना विचार कर गृहस्थ को जितने द्रव्य से उसका ममत्व छूटा होता था, उतना द्रव्य अलग एक स्थान पर रख देता था / ऐसा नहीं है कि प्रमाण किये बिना ही मंदिरजी के लिये अनक्रम से खर्च करे / इसका कारण क्या ? पहले तो परिणाम ऊंचे हों, बहुत धन खर्च करना विचारा हो पीछे परिणाम शिथिल हो जावें तो पहले विचारा जितना धन खर्च करना कैसे बने, उल्टा निर्माल्य का दोष लगे। अतः पहले ही द्रव्य का प्रमाण कर तथा अलग रख कर उसमें से ही खर्च करना चाहिये। __जिनमंदिर निर्माण विधि :- राजा की आज्ञा से बडा नगर जहां जैन लोग बहुत रहते हों, उनके बीच आसपास में गृहस्थों के घरों को छोडकर पवित्र ऊंची भूमि मूल्य देकर या भूमि के मालिक की अनुमति पूर्वक खरीदे, बलपूर्वक न ले / फिर शुभ मुहूर्त देखकर गृहस्थाचार्य उस पर मंत्र लिखें तथा जंत्र के कोठे में सुपारी, अक्षत आदि द्रव्य रखे / उनके रखने से ऐसा ज्ञान हो जाता है (था) कि अमुक स्थान पर इतनी गहराई पर श्मशान की राख है, इतनी गहराई पर हड्डी-चमडा है / खुदाई करा कर राख, हड्डी, चमडा आदि अशुचि वस्तुओं को निकलवादे तथा श्रेष्ठ नक्षत्र, योग्य लग्न देखकर नीव में पाषाण रखे। जिस दिन से नीव लगे उस दिन से मंदिर का निर्माण कराने वाला गृहस्थ स्त्री सहित ब्रह्मचर्य अंगीकार करे तथा यह ब्रह्मचर्य का नियम प्रतिष्ठा होकर श्रीजी के मंदिर में विराजमान किये जाने के दिन तक पाले / छने हुये पानी से ही काम करावे / चूने की भट्टी नहीं बनवावे, प्रासुक ही खरीदे / कारीगर, मजदूर आदि से अधिक काम कराने के लिये जोर न दे, एवं उनके रोजगार (मजदूरी देने) में कमी न करे, उन पजदूरों को निराकुलता रहे, इतना धन (मजदूरी) देकर मंदिरजी का काम करावे /
SR No.032848
Book TitleGyananand Shravakachar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRaimalla Bramhachari
PublisherAkhil Bharatvarshiya Digambar Jain Vidwat Parishad Trust
Publication Year2010
Total Pages330
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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