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________________ 95 विभिन्न दोषों का स्वरूप अंगुलियों वाले) हाथ से ग्रास उठा कर मुंह में डाला जाता है। इसप्रकार सब की झूठन थाली में घुलमिल कर एकाकार हो जाती है, और परस्पर एक दूसरे की झूठन खाने में आती है / ऐसी झूठन खाकर परस्पर एक दूसरे से हास्य, कौतूहल तथा अत्यन्त स्नेह बढाकर तथा मनुहार करके इन्द्रियों का पोषण करते हैं। उनके (इन्द्रियों के) पोषण से काम विकार तीव्र होता है अथवा मान अत्यन्त बढता है / इसप्रकार एक साथ शामिल बैठकर जीमने (भोजन करने) से अनेक प्रकार के पाप उत्पन्न होते हैं / अतः सगे भाई, पुत्र, इष्ट मित्र अथवा साधर्मी धर्मात्मा के शामिल बैठकर भी जीमना (भोजन करना) उचित नहीं है / रजस्वला स्त्री के दोष आगे रजस्वला स्त्री के दोष कहते हैं - सामान्य रूप से एक महिने के आसपास अन्तराल से उसके योनी स्थल से ऐसा निंद्य रुधिर-विकार का समूह निकलता है, जिसके निमित्त से कई मनुष्यं, तिर्यन्च अंधे हो जाते हैं, अथवा आंखों में फूला पड जाता है, पापड, मंगोडी लाल हो जाते हैं, इत्यादि / उसकी छाया से अथवा उसको देखने से अथवा उसके कपड़ों के स्पर्श करने से तीन दिन तक अनेक दोष उत्पन्न होते हैं / इसको रजस्वला (मासिक धर्म) होने का समय महापाप के उदय जैसा है, उस समय वह चाण्डालिन के समान है / उसके हाथ से स्पर्शित सभी वस्तुयें अशुद्ध हो जाती हैं / बाद में चौथे दिन, अथवा किन्हीं आचार्यों के अनुसार पाँचवें या छठे दिन शुद्ध होती है। ___ भावार्थ :- छठे दिन अथवा पांचवें दिन अथवा चौथे दिन स्नान करके उज्जवल कपडे पहन कर भगवान के दर्शन कर पवित्र होती है / मुख्यपने चौथे दिन स्नान कर पति के समीप जाती है / कुछ पशु शूद्र के समान हैं वे उसको छूने को भिन्न (स्पर्श न करने योग्य) नहीं मानते, तो वे भी चाण्डाल के समान हैं / बहुत कहां तक लिखें ?
SR No.032848
Book TitleGyananand Shravakachar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRaimalla Bramhachari
PublisherAkhil Bharatvarshiya Digambar Jain Vidwat Parishad Trust
Publication Year2010
Total Pages330
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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