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________________ 86 ज्ञानानन्द श्रावकाचार उत्पन्न हो जाते हैं जो प्रत्यक्ष ही आंखों से दिखाई देते हैं / अतः मर्यादा से बाहर का आटा तथा बाजार का तो तुरन्त पिसा आटा भी छोडने योग्य है। जितनी आटे की कणिकायें उतने ही त्रस जीव जानना / धर्मात्मा पुरुष ऐसा सदोष आटा कैसे ग्रहण कर सकते हैं ? ____ चमडे के संयोग में अन्तर्मुहूर्त से लेकर जब तक घी चमडे से निर्मित पात्र में रहता है, तब तक अधिक मात्रा में असंख्यात त्रस जीव उत्पन्न होते रहते हैं / उस चर्म के संयोग के कारण वह घी महानिंद्य अभक्ष हो जाता है। जैसे किसी एक श्रावक पुरुष ने खाना बनाने के समय किसी श्रद्धानी पुरुष को कुछ राशि देकर बाजार से घी मंगवाया, तब उसने चमडे के पात्र वाला घी खाना छुडाने के लिये एक बुद्धिमानी की / उसने बाजार से एक नया चमडे का जूता खरीदा तथा उसमें घी लाकर उसकी रसोई में जा कर रख दिया। तब वह श्रावक भोजन छोडकर उठ खडा होने लगा तो उस श्रद्धानी ने पूछा - भोजन क्यों छोड़ रहे हो ? आपने पहले कहा ही था कि मुझे चमडे के (से स्पर्शित) घी से परहेज नहीं है / बाजार में महाजन के पास तो कच्ची खाल में घी था, मैं परहेज न जानकर पक्की खाल के जूते में घी लाया तथा आपको दिया, मेरा क्या दोष है ? मैं यह नहीं जानता था कि आपकी भी क्रिया अन्य पुरुषों जैसी ही है। ___जैसे कोई पुरुष बहुत अधिक तथा अनछने पानी से तो नहावे तथा कांच के सदृश्य उज्जवल बर्तन रखे, बडे-बडे चौके लगावे चौके को बहुत स्वच्छ रखे, कोई ब्राह्मण आदि उत्तम पुरुष का भी स्पर्श हो जावे तो रसोई (भोजन) को काम नहीं ले, किन्तु थाली में मांस लेकर बहुत प्रसन्न हो / उसीप्रकार चमडे से स्पर्शित घी महाअभक्ष्य जानना / ऐसा सुनकर उसे उचित मानकर उस पुरुष ने चमडे के (से स्पर्शित) घी, तेल, हींग, जल आदि दोषपूर्ण वस्तुओं का त्याग कर दिया। ऐसा ही जानकर अन्य भव्य पुरुष भी इनका त्याग करें /
SR No.032848
Book TitleGyananand Shravakachar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRaimalla Bramhachari
PublisherAkhil Bharatvarshiya Digambar Jain Vidwat Parishad Trust
Publication Year2010
Total Pages330
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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