SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 291
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ 282] श्री तेरहद्वीप पूजा विधान एक एक जिनप्रतिमा ऐसे सब मिल एकसौ जिन प्रतिमा गन्धकुटी सहित शाश्वते विराजमान तिनको॥८॥ अघु। विद्युन्माली मेरुके सु जान, चारों वन षोड़श जिन थान। षोड़श गिर वक्षार सुशीश, गिर वैताड़ शिखर चौतीस॥ षट्कुलगिर कुरु भु द्रुम दोय, हस्तीदंत चार फुनि होय। आठ अधिक सत्तर जिनधाम, अर्घ चढ़ाय करूं परिणाम॥ ॐ ह्रीं विद्युन्माली मेरुके दिशा विदिशा मध्ये अठत्तर जिनमंदिरके सिद्धकूट शाश्वते विराजमान तिनको॥९॥ अर्घ // विद्युन्माली पूरव ओर कालोदधि सागर घनघोर। पश्चिम मान पौत्र गिर सार, दक्षिण उत्तरं इक्ष्वाकार। बीच जिते जिनमंदिर होय, कीर्तम और अकीर्तम सोय। अथवा सिद्ध भूम है जहां, अर्घ चढ़ाय नमूं नित तहां॥ ___ह्रीं विद्युन्माली मेरुके दिशा विदिशा मध्ये कालोदधि समुद्रादि मानुषोत्तर पर्वत पर्यन्त जहां जहां कीर्तम अकीर्तम जिनमंदिर होय अथवा सिद्धभूमि होय तहां तहां॥१०॥ अर्घ। अथ जयमाला-दोहा विद्युन्माली मेरुके षट्कुल गिर सु विशाल। दक्षिण उत्तर दोय दिश, तिनकी सुन जयमाल॥२५॥ पद्धडी छन्द जै विद्युन्माली मेरू जान, जै कंचन वरन हिये सु आन। जहां सोलहजिनमंदिर विशाल,भविजीव सुपूजत हैं त्रिकाल॥ जै ताकी दक्षिण दिश निहार, तहां तीन कुलाचल पडे सार। गिर निषध महाहिमवन महान, हिमवन गिर हेमवरन वखान॥
SR No.032847
Book TitleTerah Dwip Puja Vidhan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMulchand Kisandas Kapadia
PublisherDigambar Jain Pustakalay
Publication Year2000
Total Pages338
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy