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________________ श्री तेरहद्वीप पूजा विधान [163 FarSENSNrorarSararararsaareerNare केई सम्यकद्दष्टि जीव जान, विध चार संघको देत दान। यह विध वरतै सो चतुर काल पंचम छट्ठम दुखको महान॥ तिस क्षेत्र विषै वैताड़ नाग, द्युति स्वेत वरण सोहै सुहाग। तसु शिखर विराजै सिद्धकूट, तापर जिनमंदिर हैं अटूट॥ सब समोसरण रचना समान,सत आठ अधिक प्रतिमा प्रमान। सब मंगल दर्व धरें विचित्र वसु प्रातिहार्य सोहैं पवित्र॥ सुर विद्याधरके भूप आय, जिनराज भवन पूजत बनाय। नाचत गावत देदे सुताल, निज जन्मसुफल मानत सुलाल॥ घत्ता-दोहा अचलमेरु दक्षिण दिशा, गिर वैताड विशाल। तिनकी यह जयमाल है, वांचत भविजन लाल // 23 // इति जयमाल ___ अथाशीर्वादः - कुसुमलता छन्द मध्यलोक जिन भवन अकीर्तम, ताको पाठ पढै मन लाय। जाके पुन्यतनी अति महिमा, वरणन को कर सके बनाय॥ ताके पुत्र पौत्र अरू संपति, बाढै अधिक सरस सुखदाय। यह भव जस पर भव सुखदाई, सुर नर पद ले शिवपुर जाय॥ // इति आशीर्वादः॥ इति श्री अचलमेरुके दक्षिणदिश भरतक्षेत्र संबन्धी रुपाचल पर सिद्धकूट जिनमंदिर पूजा सम्पूर्णम्।
SR No.032847
Book TitleTerah Dwip Puja Vidhan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMulchand Kisandas Kapadia
PublisherDigambar Jain Pustakalay
Publication Year2000
Total Pages338
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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