SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 41
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ [ 5 ] सकता क्योंकि जैनधर्म के मूल में प्रतिमा पूजा की मान्यता है, जिसमें स्थानकपंथी कदापि विश्वास नहीं करते हैं / अगर प्राचार्यको जैनधर्मविषयक इतिहास गलत एवं कल्पित हो लिखना था तो इतिहास लिखने की जरूरत ही क्या थी ? प्रामाणिक इतिहास लिखने की प्रतिज्ञा करना और सत्य छिपाना दोनों एक साथ नहीं हो सकता यह बात प्राचार्य को भूलनी नहीं चाहिए थी। सत्यप्रिय जैन समाज को सावधान एवं सतर्क होकर अप्रामाणिक एवं स्वोत्प्रेक्षित तर्क के आधार पर लिखे गये इस इतिहास का अनादर एवं बहिष्कार करना चाहिए। भविष्य में कोई भी लेखक ऐसे किंवदन्ती स्वरूप इतिहास प्रादि पुस्तक को मुद्रित कर जैनधर्म को प्राघात पहुचाने की एवं साम्प्रदायिक विष फैलाने की चेष्टा न करें, यही शुभ उद्देश्य लेकर पूज्य गुरुदेव श्री की अनुमति एवं कृपा पूर्वक इस इतिहास की मीमांसा करना हमने उचित समझा है। संभव है कि उक्त प्राचार्य हस्तीमलजी आगे भी जैनधर्म विषयक इतिहास के अन्य खंड प्रकाशित करवायेंगे, हम उनसे पाशा करते हैं कि वे भविष्य में सत्य का प्राश्रय अवश्य लेंगे। प्राचार्य ने एक अनुचित कार्य यह भी किया है कि उन्होंने स्थानकपंथी मान्यतायुक्त इस ग्रन्थ का नाम-"जैनधर्म का मौलिक इतिहास" रखा है / जो कि सर्वथा अमौलिक होने के साथ-साथ भोलेजनों को भ्रम में डालने वाला है। तत्त्वप्रिय एवं सत्यप्रिय समाज को ऐसे अमौलिक इतिहास को भर्त्सना करनी चाहिए। मैं पाठकों के समक्ष प्राचार्य द्वारा रचित इतिहास में से गलत एवं अप्रामाणिक अंशों का उद्धरण करूंगा।
SR No.032834
Book TitleKalpit Itihas se Savdhan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhuvansundarvijay, Jaysundarvijay, Kapurchand Jain
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year1983
Total Pages222
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy