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________________ [ 153 ] उनमें कतिपय शिलालेख सम्प्रति, बिन्दुसार और चन्द्रगुप्त के एवं जैनधर्म से सम्बन्धित भी हैं। मीमांसा-ध्वंसावशेष के रूप में मिले प्राचीन शिलालेखों, जिनमूर्तियां और जिनमूर्ति पर उट्ट कित शिलालेखों से इस तथ्य की भलीभांति पुष्टि होती है कि पूर्वाचार्यों ने इन राजा महाराजाओं को प्रतिबोध करके जैन संस्कृति के प्रचार प्रसार हेतु आगम कथित मार्ग से जिनमन्दिरों का निर्माण करवाया था एवं उनमें तीर्थंकर परमात्मा की मूर्तियों की प्रतिष्ठा करवायी थी तथा इनके द्वारा जैनधर्म को लोकहृदय में आजतक सुरक्षित रखा है। जिनप्रतिमा और जिनमन्दिर के विरोध के कारण ही ध्वंसावशेष के विषय में प्राचार्य अपनी कलम चोरी-चोरी चला रहे हैं, उनकी सावधानी का यही कारण है कि कहीं उनके हाथों प्रतिमा की सत्यता जाहिर न होने पाये। किन्तु एक सच्चा इतिहासकार सच्चे तथ्यों पर कभी भी अभिनिवेश या दुराग्रह नहीं रख सकता। जैनागम तथा प्रागमेतर प्राचीन जैन साहित्य एवं ऐतिहासिक शिलालेखों आदि के तथ्य होते हुए भी मूर्तिपूजा जैसे विषय को विवादास्पद बनाकर इनके ऐतिहासिक तथ्यों से इन्कार करना सूर्य के प्रकाश को हाथ से रोकने सदृश बालिश प्रयास मात्र है और अपने अनुगामियों को गलत और अप्रमाणिक मार्ग पर भटकाये रखने का घृणास्पद कृत्य भी है। जिनप्रतिमा और जिनमन्दिर के विषय में पूर्वग्रह प्रसित मानस के कारण खंड 2, प० 451 पर प्राचार्य कैसी अस्पष्ट, गोल-मोल एवं हास्यास्पद बात लिखते हैं कि xxx सिंह का सम्बन्ध बुद्ध के साथ उतना संगत नहीं बैठता जितना कि भगवान महावीर के साथ / भगवान महावीर का चिन्ह ( लांछन ) सिंह था और केवलज्ञान की उत्पत्ति के पश्चात् भगवान महावीर के साथ-साथ
SR No.032834
Book TitleKalpit Itihas se Savdhan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhuvansundarvijay, Jaysundarvijay, Kapurchand Jain
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year1983
Total Pages222
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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