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________________ [ 123 ] मीमांसा-ऐसा लगता है कि स्थानकपंथियों में अपनी प्रशंसा करवाने का विशेष प्रलोभन होता है / उनके माने हुए 32 प्रागमों पर कुछ वृत्ति-चूणि-भाष्य-टीकादि के सहारे से, कुछ इधरउधर से लेकर और वह भी भूलों एवं झूठों से भरा हुआ सिर्फ "हिन्दी अनुवाद" करने वाले अमोलक ऋषि नामक स्थानकपंथी साधु ने अपनी हिन्दी अनुवादित पुस्तकों के पन्ने-पन्ने पर अपना नाम लिखवाया और छपवाया है। ऐसा तो संस्कृत और प्राकृत भाषा में जैनागमों पर स्वतंत्र प्रचुर साहित्य रचने वाले पूज्य हरिभद्रसूरिजी, पूज्य अभयदेवसूरिजी, पूज्य हेमचन्द्राचार्य महाराज एवं पूज्य यशोविजयजी उपाध्याय महाराज आदि महान् विद्वानों ने भी नहीं किया है / उक्त अमोलक ऋषि की परम्परा के प्राचार्य हस्तीमलजी भी एक महाशय हैं, जिन्होंने मनकल्पित एवं जीचाहा जैनधर्म सम्बन्धित इतिहास प्रादि साहित्य नामधारी एक समिति द्वारा रचवाया है और उसमें अपनी जीभर प्रशंसा करवायी है। श्री गजसिंहजी द्वारा प्रशंसा करवाने वाले प्राचार्य हस्तीमलजी स्वयं प्राचीन जैनाचार्यों को झूठा करने हेतु खंड-१, पृ० 123 पर लिखते हैं कि 688 छद्मस्थ साहित्यकारों द्वारा चरित्र-चित्रण में अतिशयोक्ति होना असंभव नहीं।xxx मीमांसा-प्राचार्य के उपरोक्त कथन से गजसिंहजी राठौड़ का भ्रम नष्ट हो गया होगा। यानी छद्मस्थ गजसिंहजी राठौड़ द्वारा किया गया "प्राचार्य हस्तीमलजी" का चरित्र-चित्रण अतिशयोक्तिपूर्ण होना सर्वथा संभव है / क्योंकि मुख्य संपादक गजसिंहजी छद्मस्थ होने के साथ साथ वैतनिक भी हैं, इसके कारण वे "अहो रूपं, अहो ध्वनि" वाला प्रसंग यदि प्रस्तुत करें तो उसमें उनका स्वार्थ उनको बाध्य कर सकता है तथा गृहस्थ होने के कारण शायद श्री गजा
SR No.032834
Book TitleKalpit Itihas se Savdhan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhuvansundarvijay, Jaysundarvijay, Kapurchand Jain
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year1983
Total Pages222
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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