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________________ [ 76 ] बाह्याडम्बर नहीं कहा है / बस एवं रेल में बैठकर सैंकड़ों मीलों की दूरी से वंदनार्थ पाने वाले भक्तों को प्राचार्य हस्तीमलजी ने क्या कभी रोका है ? कि-"वाहन आदि से आने में महापाप यानी हिंसा होती है, प्रतः सच्चे मन से या भाव से मेरी वन्दना वहां घर पर बैठे हुए ही करलो, इतने सैंकड़ों मीलों की दूरी से प्राना हिंसा, अधर्म, पाप और बाह्याडम्बर है।" सम्प्रदाय के मोह बन्धन में फंसकर या अपनी मनकल्पित हिंसा का शोर-शराबा करके जैनधर्म के प्रचार प्रसार की शुभ प्रवृत्तियों को भी बाह्याडम्बर या बाह्य क्रियाकान्ड कहकर निन्दा करने वाले दयाधर्मियों ( ! ) को निज की करणी और कथनी जांचनी चाहिए। और अगर इसमें बाह्याडम्बर और हिंसा प्रादि होवे तो ईमानदारी पूर्वक उनको त्यागना चाहिए। खंड 1 ( पुरानी प्रावृत्ति ) पृ० 70 पर प्राचार्य लिखते हैं कि Xxx खेद है कि हम अपनी दृष्टि से किसी भी विषय के अन्तस्तल तक नहीं पहुंचते और पुरानी लकीर के ही फकीर बने हुए मीमांसा-हमारा भी यही कथन है कि पुरानी लकीर के फकीर बने रहने के लिये उन्हें कौन बाध्य करता है ? जिनमन्दिर, स्नात्रपूजा और तीर्थयात्रादि प्रवृत्तियों को हिंसा एवं बाह्याडम्बर कहकर विरोध करने वालों और "प्रारम्भे नत्थि दया" यानी "हिंसा रूप प्रारम्भ में दया नहीं है" ऐसा मागे पीछे का संदर्भ रहित ऐकान्तिक वचन बोलने वालों की किताब छपवाना, कबूतरों को चुग्गा डालना, अपनी तस्वीर छपवाना, भक्तजनों को मीलों की दूरी से दर्शनार्थ
SR No.032834
Book TitleKalpit Itihas se Savdhan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhuvansundarvijay, Jaysundarvijay, Kapurchand Jain
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year1983
Total Pages222
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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