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________________ गोरा पारस परमणि पपई त्रिगुण (187), त्रिहुं (319), त्रीज (129), श्रीजी (309), त्रीस (41), त्रोसहस (373), त्रीसहजार (285) / (ख) करण - अपादान कारकों में 'स' (सं) के स्थान पर भीली थी' का प्रयोग : ११-रतनसेन थी मन महि डरइ (82) २॥-तुं सिंघल थी अविउ नासि (250) (ग) भूतकाल 'हतो' (माधु० राज० 'हो' ) के स्थान पर 'थो' का प्रयोग: १।-आगे - ई थो बंभण गुणी (145) (घ) दो दीर्घ स्वरों के बीच वाले अक्षर में स्थित स्वर "अ" का "ई" में परिवर्तन : दोहिली (454); पाछिली (64) 4. जैन शैली की भाषा-परम्पराओं का आग्रह : (क) संयुक्त स्वर 'ऐ' तथा 'नो' के प्राचीन रूपों को ग्रहण कर उनको प्राचीन रूपों में हो लिखा गया है, जब कि अन्य प्रतियों में उनके नव विकसित रूप लिखे गये हैं : वइसणई (२९)-बसणे (E); बेसणडे (५०३)-बसणौ (D) (ख) प्रादि 'य्-' के स्थान पर 'ज' का प्रयोगः जोपण (41) L योजन; जोगी (60) L योगी इसी प्रकार अन्त्य -ज' के स्थान पर इसके विपरीत ‘-य' का प्रयोग; प्रावयो (536) =पावजो; (ग) कहीं-कहीं शब्दों के प्राचीन रूपों का निर्वाह; (1) मध्य "त" के स्थान पर "प" : जीपण (73) - जीतण (2) आदि "ल" के स्थान पर "न" : निलवटि (468),- ललाटि (609)-, निलाटि (B,C,D,E), नालि (२८६)-लारि (184) (3) आदि व. के स्थान पर म - : मोनती (161) वीनती (206) 5. वीर-रस की अभिव्यक्ति के लिये भाषा में डिंगलत्व : . (क) व्यञ्जन द्वित्त्व : सावर्ण्य प्रवृत्ति के आधार पर विकसित प्राकृत-अप भ्रशं के द्वित्त-व्यञ्जन-युक्त शब्दों का प्रयोग डिंगल की प्रधान विशेषता है / इसी प्राधार पर उसमें अनेक प्रकार के द्वित्त-व्यञ्जनयुक्त रूपों की रचना हुई। इसमें से निम्नलिखित प्रवृत्तियां उक्त रचना में दीख पड़ती हैं :
SR No.032833
Book TitleGora Badal Padmini Chaupai
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHemratna Kavi, Udaysinh Bhatnagar
PublisherRajasthan Prachyavidya Pratishthan
Publication Year1997
Total Pages132
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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