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________________ 64 गुणस्थान विवेचन गुणस्थानवर्ती सर्व जीव धार्मिक ही हैं; क्योंकि उनके जीवन में रत्नत्रयरूप धर्म होता है / इनको क्रम से अयथार्थ पुरुषार्थी और यथार्थ पुरुषार्थी भी कह सकते हैं। 18. मिथ्या-सम्यक्चारित्र की अपेक्षा - मिथ्यात्व, सासादन और मिश्र तीनों गुणस्थानवर्ती जीव मिथ्याचारित्रवान हैं; क्योंकि ये जीव सम्यग्दृष्टि नहीं होते। चौथे अविरतसम्यक्त्व गुणस्थान से लेकर चौदहवें अयोगकेवली गुणस्थानपर्यंत के सर्व जीव सम्यक्चारित्रवान होते हैं; क्योंकि ये सर्व जीव सम्यग्दृष्टि हैं / जहाँ श्रद्धा सम्यक् हुई वहाँ ज्ञान एवं चारित्र नियम से सम्यक् अर्थात् यथार्थ ही होते हैं। इसप्रकार मोह तथा योग के सद्भाव-असद्भाव की अपेक्षा से लेकर मिथ्या तथा सम्यक् चारित्र की अपेक्षा पर्यंत अठारह अपेक्षाओं से गुणस्थानों का विभाजन हो सकता है। 3. प्रश्न : हम अभी वर्तमान में किस गुणस्थान में हैं, यदि यह जानना चाहें तो कैसे जाना जा सकता है ? उत्तर : “अमूर्तिक प्रदेशों का पुंज, प्रसिद्ध ज्ञानादि गुणों का धारी अनादिनिधन वस्तु आप है और मूर्तिक पुद्गल द्रव्यों का पिण्ड प्रसिद्ध ज्ञानादिकों से रहित जिनका नवीन संयोग हुआ ऐसे शरीरादिक पुद्गल पर हैं; इनके संयोगरूप नाना प्रकार की मनुष्य-तिर्यंचादिक पर्यायें होती हैं - उन पर्यायों में अहंबुद्धि धारण करता है, स्व-पर का भेद नहीं कर सकता, जो पर्याय प्राप्त करे उस ही को आपरूप मानता है। तथा उस पर्याय में ज्ञानादिक हैं वे तो अपने गुण हैं और रागादिक हैं वे अपने को कर्मनिमित्त से औपाधिकभाव हुए हैं तथा वर्णादिक हैं वेशरीरादिक पुद्गल के गुण हैं और शरीरादिक में वर्णादिकों का तथा परमाणुओं का नानाप्रकार पलटना होता है, वह पुद्गल की अवस्था है; सो इन सब ही को अपना स्वरूप जानता है, स्वभाव-परभाव का विवेक नहीं हो सकता। तथा मनुष्यादिक पर्यायों में कुटुम्ब-धनादिक का सम्बन्ध होता है, वे प्रत्यक्ष अपने से भिन्न हैं तथा वे अपने अधीन नहीं परिणमित होते तथापि उनमें ममकार करता है कि ये मेरे हैं। वे किसी प्रकार भी अपने
SR No.032827
Book TitleGunsthan Vivechan Dhavla Sahit
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYashpal Jain, Ratanchandra Bharilla
PublisherPatashe Prakashan Samstha
Publication Year2015
Total Pages282
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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