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________________ 60 गुणस्थान विवेचन 2. पाँचवें से बारहवें गुणस्थान पर्यंत आठ गुणस्थान चारित्र मोहनीय कर्म के उदय-अनुदय की मुख्यता से हैं। 3. तेरहवाँ गुणस्थान केवलज्ञान और योग के सद्भाव की मुख्यता से है। __4. चौदहवाँ गुणस्थान केवलज्ञान का सद्भाव और योग के असद्भाव की मुख्यता से है। भिन्न-भिन्न अपेक्षाओं से गुणस्थानों का विभाजन - 5. अविरत और विरत की अपेक्षा - प्रथम मिथ्यात्व गुणस्थान से लेकर चौथे अविरतसम्यक्त्व गुणस्थान पर्यंत के सर्व जीव अविरत ही हैं। पाँचवां गुणस्थान विरताविरत का है। छठवें प्रमत्तविरत से लेकर अप्रमत्तादि ऊपर के सभी गुणस्थानवी जीव विरत ही हैं। 6. अज्ञानी और ज्ञानी की अपेक्षा - प्रथम मिथ्यात्व गुणस्थान से लेकर दूसरे सासादन गुणस्थानपर्यंत सर्व जीव मिथ्या श्रद्धान के धारक होने से अज्ञानी हैं; क्योंकि उन्हें सम्यग्दर्शन नहीं है। विशेष इतना है कि तीसरे गुणस्थानवर्ती को मिश्र श्रद्धानी एवं मिश्र ज्ञानी भी कहा गया है। दूसरे-तीसरे गुणस्थानवी जीव भव्य होने से उनका मोक्ष जाना भी निश्चित ही है। ___ अविरतसम्यक्त्व नामक चौथे गुणस्थान से अयोगकेवली गुणस्थान पर्यंत सर्व जीव नियम से ज्ञानी अर्थात् सम्यग्ज्ञानी/यथार्थ ज्ञानी हैं; क्योंकि ये वस्तुस्वरूप को यथार्थ जानते हैं, उन्हें निज आत्मा का भी ज्ञान तथा अनुभव है। जो सर्वज्ञ हो गए हैं/अरहंत परमात्मा बन गए हैं; उनके ज्ञान का सम्यक्पना तथा चौथे अविरतसम्यक्त्व गुणस्थानवर्ती अव्रती श्रावक के ज्ञान का सम्यक्पना समान है - इन दोनों के ज्ञान के सम्यक्पने में किंचित् भी अंतर नहीं है। इसी कारण से सम्यग्दृष्टि भी शास्त्र का यथार्थ वक्ता है। उसका उपदेश भी सम्यक्त्व की उत्पत्ति में निमित्त कहा गया है / ___ यहाँ सर्वज्ञ भगवान केवलज्ञानी अर्थात् पूर्ण ज्ञानी हैं और चौथे गुणस्थानवर्ती जीव सम्यग्ज्ञानी होने पर भी अल्पज्ञ हैं, यह जो अंतर है; उसे मानना आवश्यक ही है।
SR No.032827
Book TitleGunsthan Vivechan Dhavla Sahit
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYashpal Jain, Ratanchandra Bharilla
PublisherPatashe Prakashan Samstha
Publication Year2015
Total Pages282
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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