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________________ सम्यग्ज्ञानचंद्रिका-पीठिका ____ 25 तूने कहा कि प्रभावनादिक धर्म भी धन से होते हैं; किन्तु वह प्रभावनादि धर्म तो किंचित् सावध क्रिया संयुक्त है। इसलिए समस्त सावध पाप रहित शास्त्राभ्यासरूप धर्म है, वह प्रधान है। यदि ऐसा न हो तो गृहस्थ अवस्था में प्रभावनादि धर्म साधते थे, उनको छोड़कर संयमी होकर शास्त्राभ्यास में किसलिए लगते हैं ? शास्त्राभ्यास करने से प्रभावनादि भी विशेष होती है। तूने कहा कि धनवान के निकट पंडित भी आकर रहते हैं। सो लोभी पंडित हो और अविवेकी धनवान हो, वहाँ तो ऐसा ही होता है। __शास्त्राभ्यासवालों की तो इन्द्रादिक भी सेवा करते हैं। यहाँ भी बड़े-बड़े महंत पुरुष दास होते देखे जाते हैं; इसलिए शास्त्राभ्यासवालों से धनवानों को महंत न जानो। तूने कहा कि धन से सर्व कार्यों की सिद्धि होती है (किन्तु ऐसा नहीं है।) उस धन से तो इस लोक संबंधी कुछ विषयादिक कार्य इसप्रकार से सिद्ध होते हैं, जिससे बहुत काल तक नरकादिक के दुःख सहने पड़ते हैं और शास्त्राभ्यास से ऐसे कार्य सिद्ध होते हैं कि जिससे इस लोक-परलोक में अनेक सुखों की परम्परा प्राप्त होती है। इसलिए धन पैदा करने के विकल्प को छोड़कर शास्त्राभ्यास करना और ऐसा सर्वथा न बने तो संतोष पूर्वक धन पैदा करने का साधन करके शास्त्राभ्यास में तत्पर रहना / इसप्रकार धन पैदा करने के पक्षपाती को शास्त्राभ्यास सन्मुख किया। 23. प्रश्न : काम-भोगादिक का पक्षपाती कहता है कि शास्त्राभ्यास करने में सुख नहीं है, बड़प्पन नहीं है; इसलिए जिनके द्वारा यहाँ ही सुख हो, ऐसे जो स्त्रीसेवन, खाना, पहिनना इत्यादिक विषय, उनका सेवन किया जाय अथवा जिसके द्वारा यहाँ ही बड़प्पन हो, ऐसे विवाहादिक कार्य किये जायें। उत्तर : विषयजनित जो सुख है, वह दुःख ही है; क्योंकि विषय-सुख तो पर-निमित्त से होता है। पहले, पीछे और तत्काल ही आकुलता
SR No.032827
Book TitleGunsthan Vivechan Dhavla Sahit
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYashpal Jain, Ratanchandra Bharilla
PublisherPatashe Prakashan Samstha
Publication Year2015
Total Pages282
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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