SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 21
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ गुणस्थान विवेचन 17. प्रश्न : अब द्रव्यानयोग का पक्षपाती कहता है कि इस शास्त्र में जीव के गुणस्थानादिरूप विशेष और कर्मों के विशेष (भेद) का वर्णन किया है; किन्तु उनको जानने से तो अनेक विकल्प-तरंग उत्पन्न होते हैं और कुछ सिद्धि नहीं है / इसलिए अपने शुद्धस्वरूप को अनुभवना अथवा स्व-पर का भेदविज्ञान करना, इतना ही कार्यकारी है। अथवा इनके उपदेशक जो अध्यात्म शास्त्र हैं, उन्हीं का अभ्यास करना योग्य है। उत्तर : हे सूक्ष्माभास बुद्धि ! तूने कहा वह सत्य है; किन्तु अपनी अवस्था देखना / यदि स्वरूपानुभव में तथा भेदविज्ञान में उपयोग निरन्तर रहता है, तो अन्य विकल्प क्यों करना ? वहाँ ही स्वरूपानन्द सुधारस का स्वादी होकर सन्तुष्ट होना; किन्तु निचली अवस्था में वहाँ निरन्तर उपयोग रहता ही नहीं, उपयोग अनेक अवलम्बनों को चाहता है। अत: जिस काल वहाँ उपयोग न लगे, तब गुणस्थानादि विशेष जानने का अभ्यास करना। ___ तथा तूने कहा कि अध्यात्म शास्त्रों का ही अभ्यास करना, सो योग्य ही है; किन्तु वहाँ भेदविज्ञान करने के लिए स्व-पर का सामान्यपने स्वरूप निरूपण है और विशेष ज्ञान बिना सामान्य जानना स्पष्ट नहीं होता। इसलिए जीव और कर्मों के विशेष अच्छी तरह जानने से ही स्व-पर का जानना स्पष्ट होता है। उस विशेष जानने के लिये इस शास्त्र का अभ्यास करना; क्योंकि सामान्यशास्त्र से विशेषशास्त्र निश्चय से बलवान होता है, वही कहा है - सामान्य शास्त्रतो नूनं विशेषो बलवान् भवेत् / 18. प्रश्न : अध्यात्मशास्त्रों में तो गुणस्थानादि विशेषों से रहित शुद्धस्वरूप का अनुभव करना उपादेय कहा है और यहाँ गुणस्थानादि सहित जीव का वर्णन है; इसलिए अध्यात्मशास्त्र और इस शास्त्र में तो विरुद्धता भासित होती है, वह कैसे है ? उत्तर : नय दो प्रकार के हैं - निश्चयनय और व्यवहारनय / निश्चयनय से जीव का स्वरूप गुणस्थानादि विशेष रहित, अभेदवस्तु मात्र ही है और व्यवहारनय से गुणस्थानादि विशेष सहित अनेक प्रकार हैं। वहाँ जो जीव सर्वोत्कृष्ट, अभेद, एक स्वभाव को अनुभवते हैं,
SR No.032827
Book TitleGunsthan Vivechan Dhavla Sahit
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYashpal Jain, Ratanchandra Bharilla
PublisherPatashe Prakashan Samstha
Publication Year2015
Total Pages282
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy