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________________ 146 गुणस्थान विवेचन प्रथमानुयोग के शास्त्ररचना का प्रारंभ करते समय अथवा शास्त्र के समाप्ति के समय किसी देश या राजा का उल्लेख करने का भाव आ जाय तो वह राष्ट्रकथा या राजकथाजन्य प्रमाद हो जाता है। प्रथमानुयोग शास्त्र की रचना करते समय अथवा उपदेश देते समय चोर की कथा द्वारा तत्त्व समझाने के कारण चोरकथा नामक प्रमाद होता है। ___आचार्य महाराज को अपने संघ के व्यवस्थित संचालन के समय किन्हीं मुनि शिष्यों के प्रति उनकी भूमिका के अनुसार संज्वलन कषायजन्य क्रोधादि उत्पन्न होते ही रहते हैं; उन्हें वे कैसे टाल सकते हैं ? विहार करते समय या ध्यान के लिए बैठते अथवा खड़े रहते समय अनुकूल-प्रतिकूल मिट्टी-कंकड़ादि वस्तुओं के स्पर्श का ज्ञान होता ही रहता है। घ्राणेन्द्रिय से गंध का ज्ञान होने पर आहार ग्रहण करते समय खट्टा-मीठा आदि रस का भी ज्ञान होने से निज शुद्धात्मा के साक्षात् अनुभव से च्युत हो जाने पर ही पंचेंद्रियजन्य प्रमाद हो जाते हैं। पिछली रयनि में कछु शयन का निद्रारूप प्रमाद मुनिजीवन में घटता ही है। निद्रा के समय उतने काल पर्यंत अर्थात् यथायोग्य अंतर्मुहूर्त काल तक शुद्धोपयोगरूप दशा नहीं रहती है; यही निद्रा प्रमाद है / स्नेह अर्थात् प्रणय, एक मुनिराज को अन्य साधर्मी मुनिराज के प्रति वात्सल्यभाव होता है, उसे स्नेह नामक प्रमाद कहते हैं; ऐसे ही प्रमाद के अन्य-अन्य कार्य मुनिजीवन में कदाचित् परिस्थितिवश तथा हेयबुद्धि से होते रहते हैं। __ गृहस्थ-जीवन के समान आलस्य में समय बिताना, सो जाना, गप्पें लगाना आदि अशुभोपयोग जनित प्रमाद तो मुनि के जीवन में संभव ही नहीं हैं, पर ऊपर कहे अनुसार प्रमाद के सभी प्रकार मुनि-जीवन में यथाकाल अतिचाररूप से घटित हो सकते हैं। सम्यक्त्व अपेक्षा विचार - इस प्रमत्तसंयत गुणस्थान में भावलिंगी महामुनिराज को औपशमिक, क्षायोपशमिक और क्षायिक सम्यक्त्व में से कोई एक सम्यक्त्व होता है।
SR No.032827
Book TitleGunsthan Vivechan Dhavla Sahit
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYashpal Jain, Ratanchandra Bharilla
PublisherPatashe Prakashan Samstha
Publication Year2015
Total Pages282
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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