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________________ अविरतसम्यक्त्व गुणस्थान 121 5. उपशम श्रेणी की अपेक्षा उपशम श्रेणी के चारों गुणस्थानों में मरण हो जाय तो सीधे चौथे गुणस्थान में आते हैं अर्थात् मरण के अंत समय पर्यंत तो श्रेणी का वही गुणस्थान रहता है; किन्तु विग्रहगति में प्रथम समय से ही चौथा गुणस्थान हो जाता है। ___ 44. प्रश्न : सादि वा अनादि कोई भी मिथ्यादृष्टि मनुष्य क्या मिथ्यात्व से अविरतसम्यक्त्व गुणस्थान की प्राप्ति कर सकता है या उसकी कुछ विशिष्ट पात्रता आवश्यक है? उत्तर : दोनों मिथ्यादृष्टियों को सम्यक्त्व के लिये पुरुषार्थ एवं पात्रता समान ही होती है। हाँ, इतना अवश्य है कि जिनकी पात्रता विशेष होती है वे शीघ्र ही सम्यक्त्वरूपी रत्न को उपलब्ध कर सकते हैं। विशिष्ट कारणों से पात्रता को प्राप्त मिथ्यादृष्टि ही अविरतसम्यक्त्व गुणस्थान की प्राप्ति कर सकता है; सर्व अथवा कोई भी मिथ्यादृष्टि नहीं। 45. प्रश्न : अविरतसम्यक्त्व गुणस्थान की प्राप्ति के लिए पात्रता का स्वरूप क्या है ? उत्तर : गृहीत मिथ्यात्व का पूर्ण त्याग आवश्यक है। रागी-द्वेषी देवी-देवताओं को मानने, पूजनेवाले गृहीत मिथ्यादृष्टि जीव को चौथा अविरत सम्यक्त्व गुणस्थान प्राप्त नहीं हो सकता। वीतरागी, सर्वज्ञ व हितोपदेशी देव ही सच्चे देव हैं; वीतरागता की पोषक वाणी ही सच्चे शास्त्र हैं, छठवें-सातवें गुणस्थान में झूलनेवाले भावलिंगी दिगम्बर साधु ही गुरु हैं; ऐसा दृढ़ श्रद्धावान मिथ्यादृष्टि ही सम्यग्दृष्टि होने के लिए पात्र हैं। ___सच्चे देव, शास्त्र, गुरु की अंतरंग-बहिरंग लक्षण दृष्टि से निर्णयात्मक ज्ञान-श्रद्धा के बिना कोई कितना ही प्रयास करे, वह जीव अविरतसम्यक्त्व नामक चौथे गुणस्थान को प्राप्त नहीं कर सकता। देव, शास्त्र, गुरु- इन तीनों में से किसी एक का भी यथार्थ श्रद्धान न हो तो तीनों का सच्चा श्रद्धान नहीं है। अन्याय, अनीति और अभक्ष्य के बाह्य त्यागमय सदाचारी जीवन के बिना धर्म समझ में आना भी कठिन है। जैन कुलाचार पालन करनेवालों को अर्थात् अष्ट मूलगुणों (मद्य, मांस, मधु - इन तीन मकार और पंच उदम्बर फलों का त्यागरूप अष्टमूलगुणों) को धारण किए बिना सम्यक्त्व की प्राप्ति की पात्रता भी नहीं आ सकती है।
SR No.032827
Book TitleGunsthan Vivechan Dhavla Sahit
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYashpal Jain, Ratanchandra Bharilla
PublisherPatashe Prakashan Samstha
Publication Year2015
Total Pages282
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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