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________________ अविरतसम्यक्त्व गुणस्थान 119 उत्तर : णग्गो हि मोक्खमग्गो यह कथन व्यवहार नय का है; जो बाह्य निमित्त की अपेक्षा से सही होने पर भी निश्चय की अपेक्षा रखता है। एक ही नय के विषय को स्वीकार करने से मिथ्यात्व का प्रसंग आता है। अत: शरीर की नग्नता आदि 28 मूलगुणमय द्रव्यलिंग का पालन करनेरूप रागभाव अर्थात् पुण्यमय परिणाम और तीन कषाय चौकड़ी के अनुदय से व्यक्त वीतरागभाव - इन दोनों के सद्भाव से ही छठवें-सातवें गुणस्थान की भूमिका बनती है। ____ अब चौथे गुणस्थान से नीचे के गुणस्थानों में गमन करने के सम्बन्ध में विचार करते हैं। 3. चतुर्थ गुणस्थानवर्ती अविरत सम्यग्दृष्टि के सम्यग्मिथ्यात्व नामक दर्शनमोहनीय कर्म की सत्ता हो और उसकी निर्मल श्रद्धा अपने ही अपराध से या पूर्व कुसंस्कारवश मिश्र भावरूप हो जाये तो उसीसमय मिश्र कर्म का उदय आने से वह तीसरे मिश्र गुणस्थान में प्रवेश करता है। ___4. यह चतुर्थ गुणस्थानवर्ती यदि औपशमिक सम्यग्दृष्टि हो और स्वयमेव ही विपरीत पुरुषार्थ से उसे अनंतानुबंधी कषाय परिणाम हो जाये तो उसीसमय अनंतानुबंधी कषाय कर्म का उदय भी स्वयमेव आता है और यह जीव सासादनसम्यक्त्व नामक दूसरे गुणस्थान में गमन करता है। 5. क्षायिक सम्यग्दृष्टि को छोड़कर किसी अविरतसम्यग्दृष्टि की परिणति मिथ्यात्वभावरूप हो जाये और उसीसमय मिथ्यात्व कर्म का उदय भी आ जावे तो वह मिथ्यात्व गुणस्थान में प्रवेश करता है। आगमन - 1. सादि या अनादि मिथ्यादृष्टि जीव शुद्धात्मा के आश्रय से मिथ्यात्व गुणस्थान से सीधे अविरतसम्यक्त्व गुणस्थान में आ सकते हैं। 2. सम्यग्मिथ्यात्व गुणस्थानवी जीवों का भी शुद्धात्मा के आश्रय से अविरतसम्यक्त्व गुणस्थान में आगमन हो सकता है। 3. देशविरत गुणस्थानवी जीवों का अपनी पुरुषार्थ-हीनता से अविरतसम्यक्त्व गुणस्थान में आना संभव है। __4. छठवें गुणस्थानवर्ती महामुनिराज भी अपने पुरुषार्थ की कमी से सीधे चौथे गुणस्थान में आ सकते हैं।
SR No.032827
Book TitleGunsthan Vivechan Dhavla Sahit
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYashpal Jain, Ratanchandra Bharilla
PublisherPatashe Prakashan Samstha
Publication Year2015
Total Pages282
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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