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________________ सम्यग्ज्ञानचंद्रिका-पीठिका जिसप्रकार दूसरे बालकों से अधिक पढ़ा हुआ बालक कहीं भूल करे, तब बड़े जन ऐसा विचार करते हैं कि बालक है भूल करे ही करे; किन्तु अन्य बालकों से भला है, इसप्रकार विचार कर वे हास्य नहीं करेंगे। उसीप्रकार मैं यहाँ कहीं भूल जाऊँ तो वहाँ सज्जन पुरुष ऐसा विचार करेंगे कि वह मंदबुद्धि था, सो भूले ही भूले; किन्तु कितने ही अतिमंदबुद्धिवालों से तो भला ही है - ऐसा विचार कर हास्य नहीं करेंगे। 4. प्रश्न : सज्जन तो हास्य नहीं करेंगे; किन्तु दुर्जन तो करेंगे ही ? उत्तर : दुष्ट तो ऐसे ही होते हैं, जिनके हृदय में दूसरों के निर्दोष/भले गुण भी विपरीतरूप ही भासते हैं; किन्तु उनके भय से जिसमें अपना हित हो, ऐसे कार्य को कौन नहीं करेगा ? 5. प्रश्न : पूर्व ग्रन्थ तो हैं ही, उन्हीं का अभ्यास करने-कराने से ही हित होता है; मंदबुद्धि से ग्रन्थ की टीका करने की महंतता क्यों प्रगट करते हो? उत्तर : ग्रन्थ का अभ्यास करने से ग्रन्थ की टीका रचना करने में उपयोग विशेष लग जाता है, अर्थ भी विशेष प्रतिभास में आता है। अन्य जीवों को ग्रन्थाभ्यास कराने का संयोग होना दुर्लभ है और संयोग होने पर भी किसी जीव को ही अभ्यास होता है। ग्रन्थ की टीका बनने से तो परम्परागत अनेक जीवों को अर्थ का ज्ञान होगा। इसलिये अपना और अन्य जीवों का विशेष हित होने के लिये टीका करते हैं; महंतता का तो कुछ प्रयोजन ही नहीं है। 6. प्रश्न : यह सत्य है कि इस कार्य में विशेष हित होता है; किन्तु बुद्धि की मंदता से कहीं भूल से अन्यथा अर्थ लिखा जाय, तो वहाँ महापाप की उत्पत्ति होने से अहित भी होगा ? उत्तर : यथार्थ सर्व पदार्थों के ज्ञाता तो केवली भगवान हैं, दूसरों को ज्ञानावरण के क्षयोपशम के अनुसार ज्ञान है, उनको कोई अर्थ अन्यथा भी प्रतिभासे; किन्तु जिनदेव का ऐसा उपदेश है - “कुदेव, कुगुरु, कुशास्त्रों के वचन की प्रतीति से व हठ से व क्रोध,
SR No.032827
Book TitleGunsthan Vivechan Dhavla Sahit
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYashpal Jain, Ratanchandra Bharilla
PublisherPatashe Prakashan Samstha
Publication Year2015
Total Pages282
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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