SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 105
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ 104 गुणस्थान विवेचन 5. अस्थिर श्रद्धावान सम्यग्मिथ्यादृष्टि जीव मुनिजीवन के योग्य संयम को अथवा व्रती श्रावक के योग्य संयमासंयम परिणाम को प्राप्त नहीं कर पाता। 6. तीर्थंकर नामकर्म की सत्ता जिस जीव को है, वे जीव इस तीसरे गुणस्थान में नहीं आते / तीर्थंकर प्रकृति की सत्तावाले जीव एक अंतर्मुहूर्त मात्र के लिये मिथ्यात्व गुणस्थान में तो जा सकते हैं; परन्तु तीसरे मिश्रसम्यग्मिथ्यात्व गुणस्थान में नहीं जाते। धवला पुस्तक 1 का अंश (पृष्ठ 167 से 171) सामान्य से सम्यग्मिथ्यादृष्टि जीव हैं / / 11 / / दृष्टि, श्रद्धा, रुचि और प्रत्यय ये पर्यायवाची नाम हैं। जिस जीव के समीचीन और मिथ्या दोनों प्रकार की दृष्टि होती है, उसको सम्यग्मिथ्यादृष्टि कहते हैं। 6. शंका - जिसतरह मिथ्यात्व के क्षयोपशम से सम्यग्मिथ्यात्व गुणस्थान की उत्पत्ति बतलाई है; उसीप्रकार वह अनन्तानुबन्धी कर्म के सर्वघाती स्पर्धकों के क्षयोपशम से होता है - ऐसा क्यों नहीं कहा? समाधान - नहीं; क्योंकि अनन्तानुबन्धी कषाय चारित्र का प्रतिबन्धक है, इसलिये यहाँ उसके क्षयोपशम से तृतीय गुणस्थान नहीं कहा गया है। __जो अनन्तानुबन्धी कर्म के क्षयोपशम से तीसरे गुणस्थान की उत्पत्ति मानते हैं, उनके मत से सासादन गुणस्थान को औदयिक मानना पड़ेगा। पर ऐसा नहीं है; क्योंकि दूसरे गुणस्थान को औदयिक नहीं माना गया है। ___ अथवा, सम्यक्प्रकृति कर्म के देशघाती स्पर्धकों का उदयक्षय होने से, सत्ता में स्थित उन्हीं देशघाती स्पर्धकों का उदयाभाव लक्षण उपशम होने से और सम्यग्मिथ्यात्व कर्म के सर्वघाती स्पर्धकों के उदय होने से सम्यग्मिथ्यात्व गुणस्थान उत्पन्न होता है; इसलिये वह क्षायोपशमिक है। यहाँ इसतरह जो सम्यग्मिथ्यात्व गुणस्थान को क्षायोपशमिक कहा है, वह केवल सिद्धान्त
SR No.032827
Book TitleGunsthan Vivechan Dhavla Sahit
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYashpal Jain, Ratanchandra Bharilla
PublisherPatashe Prakashan Samstha
Publication Year2015
Total Pages282
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy