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________________ जैनधर्म की विश्व को ओर किसी भी धर्म ने नहीं दी वैसी यह विशिष्ट देन है कि-'अविरति से भी भारी कर्म बन्ध होता है / ' किसी भी पाप के त्याग की 'विरति' न होनी यानी प्रतिज्ञा न होनी यह 'अविरति' है / जैसे कि हम मांसाहार नहीं करते हैं, फिर भी हमें इस के त्याग की प्रतिज्ञा नहीं है, तो इस अविरति से हमें कर्मबन्ध होता रहता है / कैसे ? इस प्रकार कि हम मांस खाते नहीं है फिर भी इसके त्याग की प्रतिज्ञा क्यों नहीं लेते हैं? इसीलिए कि मन में ऐसी अपेक्षा है कि 'भविष्य में शायद मौका आ जाए तो हमें नोन वेज (मांस की) वस्तु लेनी पडे / ' मन में यह पाप की अपेक्षा होनी यह भी पाप है, यह कर्मबन्ध कराती है / जेब में छूरा रखकर फिरनेवाले को पुलिस ने पकडा तो कहता है कि'मैं इसे बारह साल से रखता हूँ, पर किसी को मारा नहीं है, किन्तु हमारा दुश्मन बहुत बदमाशी करने आये तो उसको मारने के लिए रखा है / ' यह दिल में शत्रु को मारने की रखी हुई अपेक्षा भी पाप है / पाप तीन प्रकार से होता है:- करण, करावण और अनुमोदन से / वैसे ही पाप की अपेक्षा (छूट यानी अविरति) से भी पाप लगता है / लोग कहते हैं 'करे सो भरे' / जैन धर्म एक कदम आगे बढ़कर कहता है 'वरे सो भी भरे / ' 'वरे' यानी पाप के साथ नाता-ताल्लुक रखता है वह भी कर्म बांधता है / हाँ, इसके त्याग की प्रतिज्ञा (विरति) करे तब पाप के साथ नाता टूट जाता है /
SR No.032824
Book TitleJain Dharm Ka Parichay
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhuvanbhanusuri
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year2014
Total Pages360
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size25 MB
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