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________________ (7) 'गोत्रकर्म' के कारण उच्च-नीच कुल की प्राप्ति होती है | (8) 'अंतराय कर्म' के उदय से दानादि लब्धियाँ दबकर कृपणता, दरिद्रता, पराधीनता व दुर्बलता उपस्थित होती हैं / ' इस प्रकार जीव का मूलस्वरूप भव्य, शुद्ध, अचिन्त्य और अनुपम होने पर भी कर्म के आवरण के कारण जीव तुच्छ, मलिन और विकृत स्वरूपवाला हो गया है, जैसे कि पहले बताया जा चुका है / यह विकृति किसी नियत समय पर शुरु नहीं हुई है / किन्तु कार्यकारणभाव के नियमानुसार अनादि अनंतकाल से चली आ रही है / जैसे जैसे पुराने कर्म विपाक में आते रहते है वैसे-वैसे वे इन विकारों को प्रगट करते जाते हैं, और बाद में वे कर्म स्वयं आत्मा से पृथग् हो जाते हैं / किन्तु उसके बाद अन्यान्य कर्म पक-पक कर फल दिखाते जाते हैं / इस प्रकार विकारों की सतत धारा चालू रहती है / दूसरी ओर कारण-संयोग (आश्रव) से नए-नए कर्म उत्पन्न भी होते जाते हैं / और वे उत्तरकाल में स्थितिकाल पक्व होने द्वारा विकार प्रदर्शित करते रहते हैं / इस प्रकार संसार-प्रवाह अनादि काल से चालू है / यदि कर्म को आकृष्ट करनेवाले आश्रव बन्द कर दिए जाएँ, और सवंर का आचरण किया जाए, तो नवीन कर्मो का आना रुक जाए ; ओर दूसरी ओर तपसे पुराने कर्मो की निर्जरा होती चले / इसी प्रकार एक दिन जीव समस्त कर्मो से रहित होकर मोक्ष-प्रयाण 2 80
SR No.032824
Book TitleJain Dharm Ka Parichay
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhuvanbhanusuri
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year2014
Total Pages360
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size25 MB
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