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________________ भावनिक्षेप है / प्रत्येक पदार्थ के चार निक्षेप तो होते ही है किन्तु कुछ पदार्थो के अधिक भी होते है / जैसे कि, लोक के क्षेत्रलोक काललोक, भवलोक आदि निक्षेप भी होते हैं / ऐसा वर्णन किया जाता है कि ‘जीव व जड़ पदार्थ लोक में रहते हैं, अलोक में नहीं' यहां 'लोक' का आशय है क्षेत्रलोक / 'जीव' अज्ञान के कारण लोक में भ्रमण करता है, यहां 'लोक' से अभिप्रेत है भव / / अनेकान्तवाद (= स्याद्वादःसापेक्षवाद) : जैन दर्शन अनेकान्तवादी दर्शन है, किन्तु अन्य दर्शनों के समान एकान्तवादी नहीं है / एकान्त का यह तात्पर्य है कि वस्तु में जिस धर्म की बात प्रस्तुत हो, मात्र उसी धर्म के होने का निर्णय या सिद्धांत, तथा उसके प्रतिपक्षी सत् भी धर्म का निषेध या इन्कार / अनेकान्त का अभिप्राय यह है कि वहां उस धर्म का अस्तित्व होने का तथा अन्य अपेक्षाओं से घटित होनेवाले उसके प्रतिपक्षी धर्मो का भी अस्तिव होने का निर्णय या सिद्धांत / यहां पूर्वजन्म का स्मरण होता है इससे सूचित होता है गतजन्म में जो आत्मा थी, वह आत्मा ही यहां है / अतः सिद्ध है कि देह नाशवंत है / किन्तु आत्मा अविनाशी है / अब एकान्तवादी न्यायादि दर्शन आत्मा को अनित्य 32 332
SR No.032824
Book TitleJain Dharm Ka Parichay
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhuvanbhanusuri
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year2014
Total Pages360
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size25 MB
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