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________________ जिनमत और जिनमत में विद्यमान संघ; 'ये तीन ही सार हैं, शेष संसार असार' ऐसा हृदय में सचोट (अचूक) जम गया हो / 3 लिंग :- (i) सुखी युवक को दिव्यसंगीत के श्रवण में जैसा तीव्र राग होता है, वैसा धर्म शास्त्रश्रवण में तीव्र राग / (ii) अटवी पार किये हुए अत्यन्त भूखे ब्राह्मण को घेबर की तीव्र इच्छा के समान चारित्रधर्म की तीव्र अभिलाषा / (iii) विद्यासाधक के समान अरिहंत और साधु की विविध सेवा का नियम | 5 दूषण का त्याग :- (i) जिनवचन में शंका (ii) इतर धर्म की आकांक्षा या आकर्षण, (iii) धर्मक्रिया के फल में संदेह, (iv) मिथ्यादृष्टि की प्रशंसा, (v) कुगुरू का परिचय (संस्तव) ये पांच अकरणीय हैं / 5 भूषण :- (i) जैन शासन में कुशलता (उत्सर्ग वचन, अपवाद वचन, विधि वचन, भय वचन... आदि का विवेक) (ii) शासन प्रभावना (iii) स्थावर तीर्थ शत्रुजय आदि की तथा जंगमतीर्थ 'श्रमण संघ' की विविध सेवा (iv) स्व-पर को जैन धर्म में स्थिर करना (v) प्रवचन - संघ की भक्ति विनय-वैयावच्च (सेवा) / 5 लक्षण :- शम, संवेग, निर्वेद, अनुकम्पा आस्तिक्य / 6 आगार :- अगार का अर्थ है अपवाद / (i) राजा (ii) जनसमूह (ii) बलवान चोर आदि (iv) कुलदेवी आदि (v) माता - पिता आदि गुरुवर्ग, - इन पांच का उस प्रकार का बलात्कार हो 2 25280
SR No.032824
Book TitleJain Dharm Ka Parichay
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhuvanbhanusuri
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year2014
Total Pages360
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size25 MB
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