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________________ किया कि ध्याता-ध्येय-ध्यान का एकत्व हो, आपने उत्कृष्ट समाधि, क्षपक श्रेणि, व केवलज्ञान पाया / अतः आपके नाभिकमल की पूजा से मुझे भी नाभि में ऐसे प्राणस्तंभन व मन से आत्मस्वरुप में लानाता यानी समाधि प्राप्त हो / " इस प्रकार वैसी वैसी भावनाओं के साथ जिनेश्वर भगवंत को नवांगीतिलक व अष्टप्रकारी पूजा करने से (i) मन निर्मल होता है, (ii) शुभ भावनाएँ जाग्रत होती हैं, और (iii) इन से धर्म में सुदृढता आती है, एवं (iv) विशिष्ट कर्मक्षय होता है, व (v) गुणस्थानक की वृद्धि होती है / अंत में जीव शिव बनता है, जैन 'जिन' बनता है, आत्मा ‘परमात्मा' हो जाती है / (24) पर्व और आराधना सामान्य दिनों की अपेक्षा पर्व के दिनों में धर्माराधना विशेष प्रकार से करनी चाहिए / क्यों कि जैसे व्यावहारिक जीवन में दिपावली आदि के विशेष दिनों में लोग विशिष्ट भोजन तथा आनंद-प्रमोद करते हैं, जिससे सांसारिक उल्लास बढ़ता है, वैसे ही पर्व की आराधना विशेष प्रकारेण करने से धर्म-विषयक उल्लास बढ़ता है / सामान्य पर्व के दिनो में तपस्या, अरिहंत प्रभु की विशेष भक्ति, चैत्यपरिपाटी (ग्राम या नगर के मन्दिरों में दर्शन), समस्त साधुओ 0 1948
SR No.032824
Book TitleJain Dharm Ka Parichay
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhuvanbhanusuri
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year2014
Total Pages360
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size25 MB
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