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________________ (6) अक्षतपूजा :- इस में भावना-"हे अरिहंत देव ! जैसे अक्षत बोने से फिर से उगता नही है, वैसे इस संसार में मेरा पूनर्जन्म न हो, अक्षत अखंड है वैसे मेरी आत्मा विविध जन्मो के पर्यायों से रहित, अखंड, शुद्ध, ज्ञानमय, अशरीरी हो / जैसे अक्षत वह चरम पाक (=पक्वअवस्था) है, वैसे मेरी आत्मा अंतिम परम शुद्ध अनंत सुखमय अवस्था को प्राप्त हो / (7) नैवेद्य पूजा :- इसमें भावना-"हे निर्विकार प्रभु ! इस नैवेद्य पूजा से मेरे आहार-रस आदि के मेरे सब विकार नष्ट हो और मुझे अनाहार पद प्राप्त हो / " (8) फल पूजा :- इस में भावना-"हे देवाधिदेव! इस फलपूजा से फल की तरह मुझे मोक्ष फल का दान करें / " ___ रोजाना वैसी वैसी भावना के साथ अष्टप्रकारी पूजा करने से अपनी आत्मा में सुकृत-साधना-सद्गुणों का बीजाधान होता है, कहा भी है- 'बीजं सत्प्रशंसादि' नवाङ्गीतिलक में भावना : (1) दाये-बाये अंगूठे पर तिलक करते वक्त भावना - 'हे परमपुरुष! आप के चरणस्पर्श से मैं पवित्र बनूं / स्वीच ओन करने से जैसे बल्ब में इलेक्ट्रिक पावर चला आता है, वैसे प्रभु ! आपके चरण के साथ मेरी अंगुलि का कनेक्शन करने से, आप के 2 19180
SR No.032824
Book TitleJain Dharm Ka Parichay
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhuvanbhanusuri
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year2014
Total Pages360
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size25 MB
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