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________________ की हथेलियों को कुछ पोली जोडकर, उंगलियों के नोंकों को एक दूसरे के बाद क्रमशः रखना, दोनों अंगुठों को एक दूसरे के बाद के पीछे रखकर तथा दोनों हाथों को कुहनी तक जोडकर कुहनी पेट पर लगानी यह योगमुद्रा है / समस्त सूत्र-स्तुति योगमुद्रा से बोली जाती है / ____(ii) मुक्ताशुक्ति मुद्राः- 'जावंति चेइयाई....', 'जावंत के वि साहू...' और 'जय वीयराय' सूत्र के समय योगमुद्रा की तरह हाथ जोडना किन्तु अंगुलियों के नोक परस्पर सामने आएं तथा हथेली बीच में, मोती की सीप की तरह, ज्यादा पोली रहे यह मुक्ताशुक्ति मुद्रा है। ___(ii) जिन-मुद्रा :- कायोत्सर्ग के समय खड़े रहकर दो पगों के बीच में आगे चार उंगली जगह, और पीछे इस से कम जगह रहे। हाथ लटकते रहे और दृष्टि नासिका के अग्र भाग पर स्थिर रहे। अर्थात् जैसे जिनराज काउस्सग्ग ध्यान में खड़े होते हैं, इस प्रकार इसे कायोत्सर्ग मुद्रा भी कहते हैं / 10. प्रणिधान 3:- अर्थात् इन्द्रियो सहित काया, वचन तथा मन को अन्य वर्ताव, वाणी तथा विचार में जाने न देकर प्रस्तुत चैत्यवन्दन में ही ठीक स्थिर करना और चैत्यवन्दन करना / पूजा में सावधानीः 1. 'जिन पडिमा जिन सारिखी' -अरिहंत की मूर्ति को यह साक्षात् भगवान है ऐसा समझना चाहिये / अतः धातु की प्रतिमा को एक 21878
SR No.032824
Book TitleJain Dharm Ka Parichay
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhuvanbhanusuri
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year2014
Total Pages360
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size25 MB
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