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________________ रचना करते हैं / अष्टप्रातिहार्य से आपकी सेवा की जाती है / इन्द्र जैसे महानुभाव भी आपके चरणों में नमस्कार करते हैं | आपकी वाणी का प्रभाव कितना अद्भुत है कि उसे वन्य पशु भी अपने शिकार के साथ मैत्रीभाव से बैठकर सुनते हैं / चौवीसों घण्टे जघन्यतः एक करोड देवताएँ आपके सानिध्य में रहकर सेवा-उपासना करते हैं / ___ अहो ! आप स्मरणमात्र से अथवा दर्शनमात्र से भी दास के पापो का नाश करते हैं / आपकी उपासना मोक्ष तक के अनंत सुख को देनेवाली होती है / आपका कितना अपरम्पार प्रभाव युक्त अनंत उपकार है !! फिर भी बदले में आपको....कुछ भी नहीं चाहिए / अहो कैसी निष्कारण वत्सलता! आपने तो घोर अपकारी-अपराधी को भी तारने का अद्भुत अलौकिक उपकार किया है तो मैं भी आपके द्वारा अवश्य तैर जाऊँगा / (v) रूपस्थ अवस्थाः- अर्थात् मोक्ष में प्रभु की शुद्ध स्वरुप-अवस्था के विषय में विचार करना / 'हे परमात्मन् ! आपने सर्व कर्मो का निर्मूल नाश करके अशरीरी, अरूपी, शुद्ध बुद्ध, मुक्त, शाश्वत सिद्धअवस्था को प्राप्त कर कैसे अनन्त ज्ञान और अनंत सुख में निमग्न रहने का किया !' कैसे अनन्तगुण ! वहां कैसी निष्कलंक, निराकार, निर्विकार निराबाध स्थिति ! कैसी वहाँ जन्म-मरण, रोग-शोक और दारिद्य आदि पीड़ा का अस्तित्व ही नहीं / धन्य प्रभु !" इस प्रकार पिंडस्थ आदि अवस्थाओं का चिंतन करना / अब तक पांच त्रिक 1858
SR No.032824
Book TitleJain Dharm Ka Parichay
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhuvanbhanusuri
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year2014
Total Pages360
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size25 MB
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