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________________ मिलाकर अष्ट प्रकारी पूजा कही जाती है / यह 'द्रव्य-पूजा' है / ____(ii) तत्पश्चात्स्तुति, चैत्यवंदन, प्रभु के गुणगान आदि स्वरुप भावभक्ति करनी उसको भावपूजा कहते है / (5) अवस्थाचिंतन 3:- द्रव्य पूजा करने के पश्चात् प्रभुजी के सामने पुरुष प्रभुजी की दायीं (अपनी बायी) ओर खडे रहकर तथा स्त्रीयां प्रभु की बांयी (अपनी दायीं) ओर खड़ी रहकर प्रभु की पिण्डस्थ, पदस्थ और रुपस्थ इन तीन अवस्थाओं का चिंतन करे / (अवस्था का स्वरुप व उसमें प्रभु के गुण झाँचे) पिण्डस्थ में जन्मावस्था, राज्यावस्था, श्रमणावस्था इन तीन अवस्थाओं का निम्नलिखित प्रकार से चिंतन करना; किन्तु वह गद्गद हृदय से और भारी अहोभाव के साथ चिंतन होना चाहिए / (i) जन्मावस्थाः - 'हे नाथ ! आपने पूर्व के तीसरे भव में (1) वीस स्थानक, एवं (2) सर्वजीव की भावकरुणा तथा (3) विशुद्ध सम्यग्दर्शन की आराधना की / बाद यहाँ जब आपने तीर्थंकर के भव में जन्म प्राप्त किया तब छप्पन दिक् कुमारियां और चौसठ इन्द्रों ने आपका जन्माभिषेक उत्सव किया / जन्म के समय भी आपकी यह कैसी अद्भुत तो भी है प्रभु ! आपने स्वोत्कर्ष यानी लेशमात्र भी अभिमान नहीं किया / धन्य है आपकी लघुता ! धन्य है आपकी गंभीरता !' (ii) राज्यावस्था में सोचनाः- 'हे तारकदेव ! आपको बड़ी से बड़ी 1838
SR No.032824
Book TitleJain Dharm Ka Parichay
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhuvanbhanusuri
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year2014
Total Pages360
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size25 MB
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