SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 155
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ सुखानुभव के लिए किसी विषयसंयोग की अपेक्षा ही नहीं। यह आत्मा का नैसर्गिक सुख है, और वह अनन्त है, एवं शाश्वत है। प्र०-ऐसे तो आत्मगुण 'ज्ञान' भी नैसर्गिक है फिर इस पर कितने भी आवरण आने पर भी जैसे किंचित् ज्ञान-प्रकाश खुला रहता है, अनुभूत होता है, इस प्रकार नैसर्गिक आत्मसुख पर संसारावस्था में कितना भी वेदनीय कर्म का आवरण आने पर भी किंचित् मोक्षसुख का अनुभव क्यों नहीं होता है? उ०-ज्ञान पर के आवरण यानी 'ज्ञानावरण कर्म' में क्षयोपशम होता है, वास्ते इस कर्म में उदय-क्षयोपशम-क्षय तीन स्थिति है; किन्तु आत्म-सुखावरणरूप 'वेदनीय कर्म' में क्षयोपशम नहीं होता है, मात्र उदय एवं क्षय दो ही स्थिति होती हैं / इसलिए वेदनीय कर्म का तनीक भी उदय रहने पर मोक्ष-सुख का तनीक भी अनुभव नहीं होता है / मोक्षसुख का हमें अनुभव न होने का दूसरा कारण यह है कि हमें सांयोगिक सुखानुभव बहुत अभ्यसत है वास्ते असांयोगिक मोक्षसुख का अनुभव कहां से हो सके? जनम से दाद के दरदी को खाजसुख का ही अनुभव बहु अभ्यस्त रहने से उसको दाद के दरद रहित मानवी की तरह बिना खाज के सुख का अनुभव कहां से हो सके? अथवा कामुक को ब्रह्मचर्य के सुख का अनुभव कहां से होवे? अरे ! उसे ब्रह्मचर्य में आनन्द है इसकी कल्पना भी नहीं आती ! हां, जो बड़े संयमवाला सदाचारी है वह इसकी कल्पना 0 150
SR No.032824
Book TitleJain Dharm Ka Parichay
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhuvanbhanusuri
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year2014
Total Pages360
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size25 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy